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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय


आपसे अनजानमें या बिना सोचे-समझे असावधानीमें कोई पाप हो गया। आपको इस दुष्कृत्यपर पश्चात्ताप और आत्मग्लानि है। आपके हृदयका रोम-रोम पश्चात्तापसे क्लान्त है। आप अपने पाप-कर्मपर पर्याप्त दुःखी हो चुके हैं। एक बार बौद्धिक तथा मानसिक दृष्टिसे पश्चात्ताप कर लेना ही यथेष्ट है। जब पश्चात्ताप मर्यादाका अतिक्रमण कर जाता है तो यह एक भावना-ग्रन्थि या कम्प्लेक्सका रूप ग्रहण कर लेता है जिसे आत्मग्लानि या रिमोर्स कहते हैं। अधिक दिनोंतक मनमें शोक और आत्मग्लानिके भाव रखनेसे मनुष्यकी बड़ी मानसिक हानि होती है। अधिक पश्चात्ताप या शोक करनेसे बहुत-सी सृजनात्मक शक्तिका अपव्यय होता है।

मैंने ऐसे कई नवयुवक देखे हैं, जिनसे अनजानमें या अबोध अवस्थामें कोई पाप या दुष्कर्म हो गया था, पर जो जिन्दगीभर पश्चात्ताप करते रहे और विगत पापसे अपनेको शुद्ध न कर सके'। अपनी करनीपर सदैव दुःख मनाते रहे।

आज भी ऐसे अनेक धर्मभीरु व्यक्ति देखनेमें आते हैं, जो लज्जावश किसी भयानक दोषीकी भांति मुँह छिपाये दारुण मानसिक यातना, अपमान, निरादर अथवा आत्मग्लानिकी स्थायी भावनाका अनुभव किया करते हैं। देशके लाखों हीरे बचपनके अन्धकार या अबोध अवस्थामें किये गये दुष्कर्म, हस्तमैथुन, वासना- लोलुपता, वेश्यागमन इत्यादिके शिकार बनकर आयुभर पछताते, रोते, कलपते रहते है। अपनें-आपको धिक्कारते रहते हैं। आत्मग्लानिके आधिक्यके कारण सामाजिक जीवनमें पदार्पण नहीं कर पाते या सार्वजनिक कार्योंसे डरते-घबराते रहते हैं। उनकी आकांक्षाएँ, अभिलाषाएँ और उमंगें अधखिली कलीकी भांति असमय ही मुरझा जाती हैं। उन्हें चाहे कितना ही अच्छा कार्य आता हो, ऊँचे उठने, योग्यताओंका प्रदर्शन करनेकी कैसी ही शक्ति क्यों न हो, वे बराबर चुप्पी धारण किये रहते है। वे हृदय खोलकर अपने मनकी गांठ खोल देना चाहते हैं, किंतु आँखें चार करनेमें उन्हें लज्जा और गुप्त भय-सा अनुभव होता है। दृष्टि नीचे किये रहना, बात-बातमें शर्मा जाना, नवयौवना स्त्रीको भले ही आभूषित करता रहे, किंतु पुरुषोंके लिये विशेषतः महत्त्वाकांहीके लिये तो यह बड़ा भारी मानसिक दोष है। अधिक आत्मग्लानिके शिकार बनकर या अतिशोकग्रस्त रहकर हम बिना अपराधके ही अपराधी बन जाते हैं। अनेक बार तो नीची दृष्टि देखकर लोग उन्हें दोषी और अपराधी भी समझ बैठते हैं। उफ्! कैसी कारुणिक दशा है उस व्यक्तिकी, जो भला-चंगा होते हुए भी पग-पगपर इसी कारण अपनेको नीचा और अति साधारण समझता है, क्योंकि उससे एक बार पाप हो गया था। अति आत्मग्लानिग्रस्त व्यक्ति जब बाजारमें निकलता है, तो उसके मनमें यही गुप्त भय रहता है कि दुनियाके सभी व्यक्ति उसीके पाप, त्रुटि या कमजोरीको तीखी दृष्टिसे देख रहे हैं। चाहे वह कहीं हो, उसे ऐसा अनुभव होता है कि संसार उसकी प्रत्येक क्रिया, हाव-भाव, प्रत्येक छोटी बातको घूर-घूर कर देख रहा हो, जैसे पत्थर-पत्थरमें हजारों नेत्र हों जो उसे हड़प कर डालनेपर तुले हुए हों।

अपने पापका पश्चात्ताप करना निश्चय ही उचित है। आपसे कोई दुष्कर्म हो गया है, तो उसके लिये अवश्य प्रायश्चित्त करें, भविष्यमें उसे कभी न करनेकी कड़ी शपथ लें, बड़े सावधान रहें, कुसंग और कुमित्रोंसे सदा बचे रहें, गन्दे स्थानोंपर न जायँ, कुविचार मनमें न आने दें। लेकिन जब आप यह सब कुछ कर चुकें, तो निरन्तर बीती हुई बातोंमें कदापि लिप्त भी न रहें।

कैथरीन मैन्सफील्ड लिखते हैं, 'आप इसे अपनी जिंदगीका नियम बना लीजिये कि कभी पश्चात्ताप न करेंगे और बीती हुई अप्रिय बातोंको भूल जायँगे, आप बिगड़ी हुई बातोंको कदापि नहीं बना सकते-ऐसा करना कीचड़में सने रहनेके समान ल है।'

आत्मग्लानिका एक कारण गुप्त भय है। दूसरा साहसकी कमी है। इस मानसिक रोगीके मानसिक संस्थानमें गुप्त भय तथा डरपोकापन अत्यधिक वर्तमान रहता है। वह लोंगोंसे डरता है कि कहीं उसकी गुप्त बातें प्रकट न हो जाये। मनुष्योंकी भीड़ उसके हृदयमें भयका संचार कर देती है। जहाँ दों-चार व्यक्ति दीखे कि उसे अनुभव होना शरू हुआ, जैसे वे सब उसीको देखनेके लिये एकत्रित हों, वे उसका मजाक कर रहे हो, उसके पापों और पुराने दुष्कर्मोंका आलोचना कर रहे हों। आत्मग्लानिंग्रस्त व्यक्ति सभा-समितियोंमें सम्मिलित नहीं होता, दस व्यक्तियोंके बीचमें बोलनेसे घबराता है। यहाँतक कि छोटे-छोटे बच्चोंमें भी आँख ऊँची कर अपने विचार प्रकट करनेका साहस उसे नहीं होता। वह अपने उच्च अधिकारियोंसे मिलनेमें डरता है और अपने सहयोगी कर्मचारियोंसे मिलने-बोलनेमें घबराता है। अपातचतोंसे घबराता है। अपनी योग्यता एवं क्षमतामें उसका आत्मविश्वास लुप्त हो जाता है। भय तथा डरपोकपनके अतिरिक्त आत्मग्लानिके कारणोंमें उदासीनता, गम्भीरता, लज्जा, निरुत्साह, आशंका और गुप्त रोग हैं।

आत्मग्लानि बढने न दीजिये, अन्यथा यह स्थायी नैराश्य और नाउम्मीदी, स्वाभाविक मानसिक दुर्बलताका रूप धारण कर लेगी। हम प्रत्येक घटनाको अपने पक्षमें ही तय होनेकी कामना किया करते हैं, घटनाओंको व्यक्तिगत स्वार्थकी दृष्टिसे देखते हैं, अपने व्यक्तिगत मापदण्डोंसे नापते हैं। यदि ये घटनाएँ हमारे पक्षमें घटित नहीं होती, तो हम खिन्न हो जाते हैं, कुद्ध होकर ईर्ष्या अथवा प्रतिशोधकी भावनासे जलने-भुनने लगते हैं। यह सत्य है कि हम अपना रोष स्पष्टतः प्रकट नहीं करते, किंतु अंदर-ही-अंदर वह हमें खोखला किया करता है। दूसरोंपर तो इसका कुछ प्रभाव पड़ता नहीं। उलटे हमारी ही हानि हो जाती है। फिर हम क्यों अपनी व्यर्थ आशाओंको ऊँचा चढ़ाये? क्यों कल्पनाके महल खड़े करते रहें? और फिर चारों ओरसे टकराकर क्यों आत्मग्लानिके शिकार बनें!

अपने पापोंपर पछतावा करनेके पश्चात् फिर उसके ध्यानमें निरत मत रहिये। दूसरे व्यक्ति भी इन्हीं परिस्थितियोंमेंसे होकर गुजरे हैं।

वास्तवमें हममेंसे पूर्ण निश्छल, पाक-साफ, दोष-मुक्त कोई भी व्यक्ति नहीं है। एक बार ईसा महान्ने कहा था-'वह मेरे ऊपर पत्थर मारे, जिसने कभी पाप न किया हो।' यह सुनकर उन्हें दण्ड देनेवालोंकी निगाहें झुक गयीं! उनके पुराने पाप एक-एक करके उनकी स्मृतिपर उभर आये और वे शरमा गये।

अपने पापोंपर व्यर्थका शोक और पश्चाक्षात्ताप छोड़कर नये सही जागरूक रूपमें जीवनमें प्रविष्ट होइये। व्यर्थका डर या पोचपन निकालिये और खोये हुए आत्म-विश्वासको बनाइये।

मि० मिल्टन पावेल साहबका कथन है कि 'यदि आप किसी आत्मग्लानिके रोगीको ठीक करना चाहें तो उसके मनसे गुप्त भय और डरपोकपन, भीरुता निकालिये।' अपनी योग्यता और क्षमतापर अविश्वास करनेके कारण ही रोगी दारुण मानसिक यातना भोगा करता है। अतएव उसमें साहस और आत्मविश्वास उत्पत्र करनेकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिये। मनुष्यका आत्मविश्वास ही वह अमोघ शक्ति है, जिसके कारण वह उत्साही, क्रियाशील रहता है तथा सार्वजनिक एवं सामाजिक जीवनमें सफलता प्राप्त करता है।

प्रिय पाठक! तनिक सोचकर तो देखिये, जिस मनुष्यके मनसे भय, चिन्ता, शंका, डर, संदेह, निराशा, लाचारी और निर्बलता टपक रही है, वह क्या कभी कोई महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकेगा? शंका और संदेह हमारी उन्नतिमें बड़ी बाधाएँ हैं। ये हमारी मानसिक एकाग्रतामें बाधक हैं और हमारे निश्चयको ढीला कर देनेवाले दुष्ट विकार हैं? ये हमें अपने उद्देश्यसे चल-विचल कर देनेवाले फिसलनेके पत्थर हैं। संसारमें हमें अविचल साहस एवं धैर्यसे कार्य करना चाहिये। बहुत-से मनुष्योंकी सफलता और समृद्धिका कारण यही है कि वे अपनी शक्तियों और सामर्थ्यमें पूर्ण विश्वास कर सकते हैं।

'हम कार्य कर सकते हैं, हमें ऊँचे दर्जेकी सफलता प्राप्त होगी, हम निरन्तर प्रभुता प्राप्त करते जा रहे हैं, ऊँचे उठते जा रहे हैं, निरन्तर उन्नतिके प्रशस्त पथपर आरूढ़ हैं'-इन दिव्य संकेतोंसे अपनी आत्माको सराबोर करते रहिये और इन्हें अपने मानसिक संस्थानका एक अंग बना लीजिये, प्रचुर लाभ होगा।

प्रिय पाठक! योगीका तरह एकान्तवासी न बनिये। जहाँतक बने साहसपूर्ण ढंगसे सामाजिक कार्योंमें भाग लीजिये। आप व्यर्थ ही डरते किस लिये हैं? क्या आप नहीं जानते कि अन्य व्यक्ति भी आपसे अधिक नहीं जानते। वे भी मामूली ही हैं। जरा हिम्मतसे काम लीजिये।

अवसर मिले तो किसी सभा, समितिमें सम्मिलित हो जाइये और बेधड़क गाना-बजाना या खेल-कूद आदि सीख लीजिये, जिससे आप अपने कल्बके लोगोंसे खूब मिल-जुल सकेंगे। पहले-पहल यदि झेंपना पड़े तो घबरा न जाइये, प्रत्युत डटे रहिये। जहाँ मनमें आत्मग्लानि उत्पन्न हो तुरंत उसे मिटानेके लिये उसके विपरीत कार्य कीजिये। निरुत्साहके स्थानपर उत्साह और उल्लास धारण कीजिये। जहाँ हृदयमें लज्जा-संकोच अथवा भय आये, वहीं साहसपूर्ण जीवन व्यतीत कीजिये। 'हिम्मते मरदां मददे खुदा'। बिना हिम्मत संसारमें मनुष्यका कोई मूल्य नहीं है।

ढीले वस्त्र पहिनिये, जिससे गहरा श्वस-निश्वास हो सके। मांसपेशियोंको फुलाना आत्मग्लानिको भगानेमें बहुत सहायक होता है। किसी महत्त्वपूर्ण कार्यके लिये किसीसे मिलने जाना हो तो लज्जा न कर अवश्य वहाँ जाइये। जी न चुराइये। मनमें यह निश्चय कीजिये कि डरेंगे नहीं, संकोच और भय नहीं करेंगे। पुराने पापोंकी बात नहीं सोचेंगे।

पश्चात्तापकी अधिकता मनुष्यकी मौलिकता तथा नयी शक्तियोंका हास्य करनेवाली है। अतः उससे मुक्त रहिये, मंगलमय भविष्यकी आशा रखिये।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

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