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पार परे

जोगिन्दर पाल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 103
आईएसबीएन :81-263-0990-3

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काले पानी की पृष्ठभूमि में मनुष्यद्रोहिता और धर्मान्धता का जो आतंकवाद जीवन-मूल्यों को नष्ट करने पर उतारू है, उसे इस उपन्यास में रेखांकित किया गया है।

Par Parey - A Hindi Book by - Joginder Pal पार परे - जोगिन्दर पाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के बहुचर्चित कथाकार जोगिन्दर पाल के इस उपन्यास में आम आदमी की उस त्रासदी को अभिव्यक्त किया गया है जिसके लिए वह उत्तरदायी नहीं होता मगर जिसे औरों के चलते, परिस्थितियोंवश भुगतना पड़ता है। इस उपन्यास में काले पानी की सजा काटकर बाकी जीवन उसी द्वीप में बिता देनेवाले कई महत्वपूर्ण पात्रों की जीवन-कथाएँ हैं, जो अतीत की तकलीफदेह जिन्दगी के बावजूद अपनी सोच में प्रगतिशील, उत्साही और दूसरों के प्रति हमदर्द नजर आते हैं।

बाबा लालू और गौराँ इस उपन्यास के प्रमुख पात्र हैं जो कालापानी में मानवीयता की मिसाल कायम करते हैं। बाबा लालू का जीवन धार्मिक समरसता का उदाहरण है। मगर दुर्भाग्य से धर्मान्धता का जहर उस निर्वासित द्वीप तक भी पहुँच जाता है और बाबा लालू के निरपराध बेटे को दण्डस्वरूप कालापानी की सजा भुगतनी पड़ती है। नियति की विडम्बना देखिए कि काले पानी की एक सजा बाबा लालू ने भारत से अण्डमान आकर भुगती, जबकि दूसरी सजा उसके बेटे को अण्डमान से बम्बई आकर भुगतनी पड़ती है, और ऐसा समाज के कुछ फितूरी लोगों के कारण होता है।

 आखिर दूसरों की नादानी से व्यक्ति के जीवन में कब तक काले पानी का इतिहास रचा जाता रहेगा। मनुष्यद्रोहिता और धर्मान्धता का जो आतंकवाद जीवन-मूल्यों को नष्ट करने पर उतारू है, उसे इस उपन्यास में गम्भीरता से रेखांकित किया गया है। उपन्यास अपने काल को लांघ कर आज के खतरों को रेखांकित करता है और उसे प्रासंगिक बनाता है।

एक


पुतलेवाला चौक पोर्ट ब्लेयर के पुराने शहर में स्थित है। पहले यह किसी अँग्रेज बहादुर का बुत हुआ करता था मगर देश की आजादी के बाद उसे उतारकर जवाहरलाल नेहरू को यहाँ स्थापित कर दिया गया। केन्द्रीय सरकार का एक सीनियर मन्त्री उस बुत के अनावरण की रस्म पर दिल्ली से आया था और अपने भाषण में उसने वहाँ के दण्डित मूर्तिकार की तारीफ करते हुए बड़ी गर्मजोशी से कहा था कि मुझे इस मूर्ति में से नेहरू की रूह झाँकती हुई महसूस होती है।
    ‘‘तुम्हारी क्यों नहीं ?’’ किसी ने मूर्तिकार से पूछ लिया था।
    ‘‘इसलिए कि सिर्फ उन्ही रूहों को खटका लगा रहता है जो अपने किए धरे की सज़ा से बच निकली हों,’’ उसने हँसकर जवाब दिया था।

    ‘‘हाँ, तुम तो भुगत चुके हो।’’
    परन्तु बाबा लालू तो हर एक से कहता फिरता था, तुम कहते हो भाई तो माने लेता हूँ, यह पुतला नेहरू का है पर मैं तो इसे जब भी देखता हूँ, यही लगता है अपना वही अँग्रेज़ बहादुर खड़ा है।
‘‘हैरत है बाबा। क्या तुमने नेहरू की तस्वीर भी नहीं देख रखी ?’’
‘‘कैसे नहीं देख रखी है भाई ! सारे मुल्क में हर पनवाड़ी ने इस फिल्म एक्ट्रों के झुरमुट में सजा रखा होता है।’’
‘‘फिर बाबा....?’’

‘‘फिर क्या ? उसी की पहचान में तो बिगाड़ पैदा होता है जो सिर्फ तस्वीरों में ही दिखने में आये।’’
‘‘हाँ ! अपनी माँ से बिछुड़े मुझे चालीस साल से भी ऊपर हो लिए हैं।’’ काले पानी का एक और पुराना बन्दी बोल पड़ा, ‘‘इस सारी मुद्दत में मैंने माँ का कोई चित्र नहीं देखा।’’ उसकी कीचड़ आँखों से पानी की एक धार फूट आयी। पता नहीं किसी बीमारी से या रोने से, ‘‘अब तक वह दो-तीन बार मर-खप चुकी होगी। मगर मैं उस बकरी की जून में भी देख लूँ तो झट पहचान लूँ।’’

पुतले वाले चौक के दायें पहलू की ढलान पर एक रास्ता बेख्याली से ठोकर खाकर नीचे ही नीचे लुढ़कते हुए किस्सोंवाली गली में जा गिरता है। बाबा लालू इसी गली में रहता था। वह दायीं तरफ ढाई मंज़िला पाँचवाँ मकान....काले पानी की सजा मिलने पर पहले चन्द माह तो उसे सैल्युलर जेल में रखा गया और फिर कानून के अनुसार डेढ़ साल के लिए किसी और जेल में भेज दिया गया जहाँ से निश्चित मुद्दत खत्म होने पर वह नीम आज़ाद कैदी का दर्जा पाकर खुली बैरकों में आ गया। उन दिनों यहाँ इतने ज़्यादा कैदी जमा हो गये थे कि मालूम होता था कि वे बैरकों में नहीं रह रहे बल्कि बैरकें ही उनमें ही उनमें पाँव पसारकर टिक गयी हैं। ऐसे में चीफ कमिश्नर ने एक स्पेशल हंगामी हुक्म जारी कर दिया कि बैरकों में अमन पसन्द कैदियों को आम कायदे से हट कर शहर में खुले वास के लिए फौरन छोड़ दिया जाए। इसलिए बाबा लालू भी बाहर आ गया मगर बाहर आकर भी उसे इसी मासले का सामना था कि किसी तरह ज़िन्दगी की कोई चार दीवारी मिल जाए...हां और क्या ? घर ही तो !

नहीं, काले पानी की सजा मिलने से पहले बाबा लालू का कहीं कोई अपना घर न था। जो लड़का अपने माँ-बाप, भाई बहन...किसी भी अपने को न जानता हो उसका घर कहाँ होता है ? लोग कहते हैं जो अपने माँ-बाप या कम से कम माँ को न पहचानता हो उसे हम आदमी की औलाद में क्यों कर शामिल कर सकते हैं। मगर बाबा को पड़ी थी कि वह अपने को आदम की औलाद सबित करने का उपाय करता। वह तो यों हुआ कि ऊपर बादलों में उड़ते-उड़ते किसी आवारा देवता की एक अप्सरा से मुठभेड़ हो गयी और उनके यौन-सम्बध पर बाबा अप्सरा की कोख में ठहर गया। नहीं, ठहर क्या गया, अपने अलौकिक माँ-बाप की सूचना के बगैर उसी दम पैदा होकर किसी बादल में जा अटका।
बाबा की यही मुश्किल थी कि अपनी हर कहानी वह अंकों के बजाय रूपक में ही ब्यान करता। अब आगे की भी उसी की जुबान में सुन लीजिएः

‘‘फिर रिमझिम का समाँ बँधा तो मैं बूँदों में घिरा चुपके से किसी जंगल में टपक पड़ा।...फिर ? ....फिर क्या ?...जंगल में किसी रीछनी ने अपना दूध पिला-पिलाकर पैरों पर खड़ा कर दिया और फिर रीछनी अपनी राह हो ली और मैं किसी भेड़िये की दुम पकड़कर खेलते-खेसते जंगल से बस्ती में आ निकला।’’
‘‘यह कैसे हो सकता है बाबा ?’’
‘‘पर हो तो गया भाई। न होता जो सीधे बस्ती में कैसे आ पहुँचता ?’’
‘‘यह किस्सा छोड़ बाबा। यह बातोओ काले पानी कैसे आ पहुँचे ?’’

‘‘इसी तरफ तो आ रहा हूँ।’’ बाबा लालू अपनी दस्तान सुनाते हुए उसे फिर से जीने लगा, ‘‘उसी बस्ती में एक बूढ़ा और तन्हा स्कूल मास्टर था बाबू अल्लाहदित्ता, जो अपने मुँह में निवाला भी कुछ इस तरह डालता जैसे स्कूल के बच्चों के बच्चों को मुँह में निवाला डालने का सबक दे रहा हो...यूँ....!.... बाबू को बाप बनने की बड़ी तमन्ना थी मगर बीवी के बगैर उसकी तमन्ना क्यों कर पूरी होती ? उसी ने मुझे अपने घर डाल लिया...हाँ, डाला तो बेटा बनाके ही मगर क्या बताऊँ ? बेचारा अपनी जिन्सी भूख* से इतना तंग था कि अगर मैं उसका सचमुच का बेटा भी होता तो वह मेरे साथ वही करता जो मेरे साथ किया करता था....।’’
‘‘क्या किया करता था बाबा ?’’

‘‘अरे भाई, समझ जाओ न, जो करता और उसके सिवा और क्या करता ? भूखे को रोटी न मिले तो वह अपने कपड़े फाड़-फाड़कर खाना शुरू कर देता है...हाँ मैं, मुझे क्या पता कि वह मुझसे क्या कर रहा है ? मैं तो निहाल था कि वह मुझे अपने हाथ से बनायी कच्ची रोटियाँ और बासी सालन खिलाता है। मेरे दिन बड़े मजे से गुजर रहे थे और मैं इसी तरह आठवीं...नहीं, नवां जमात तक पहुँच गया था...।
‘‘समझते तो सब कुछ होगे, फिर भी...।’’

‘‘सब कुछ समझता था भाई। समझ में तो तुम्हारे नहीं आ रहा है। जिन बच्चों का कोई आगा-पीछा न हो, वे पैदा होते ही अपने पैरों पर चलकर...हँसो नहीं भाई। मैंने अपनी इन दो आँखों से देखा है....वाकई अपने पैरों पर चलकर
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*यौन वासना

सबसे पहले पनाह ढूँढते हैं। तुम्हे यकीन नहीं आएगा भाई, एक दफा का ज़िक्र है कि...’’
पहले अपनी यह कहानी तो पूरी कर लो बाबा। तुम मास्टर अल्लाहदित्ता के साथ रह रहे थे, फिर ?’’
‘‘हाँ वो !....मैं अपनी नवीं जमात पास भी नहीं कर पाया था कि मेरा कुँवारा और बूढ़ा बाप अल्लादित्ता अचानक चल बसा। खुदा उसे मुआफ करे, जब मैं उससे उर्दू और फारसी पढ़ते-पढ़ते थक जाता था तो वह मुझे हिदायत करता, चलो उठो, अब चारपाई पर औधे लेट जाओ....’
‘‘बाबा, बाबू अल्लाहदित्ता के बाद तुम....क्या नाम था उसका ?...सत्यवती के हत्थे कैसे चढे़ ?’’
‘‘टोको नहीं, बाबा को आप ही सुनाने दो...।’’

‘‘सत्यवती हमारे स्कूल की मैनेजर थी। वह मुझ पर तरस खाकर मुझे अपने साथ ले आयी। इसी तरह मेरा स्कूल जाना भी न छूटा और मैं उसके घर का काम काज भी देख लेता....और...अरे...भाई, क्या मुझसे गड़े मुर्दे उखड़वाते रहते हो...।’’
‘‘नहीं, आगे की भी सुनाओ।’’
‘‘जो गुजर गयी वह तो पीछे रह गयी, पर सुनो। सत्यवती बाबू अल्लाहदित्ता से भी दो हाथ आगे थी वह अक्सर मुझे अपने साथ सुलाने के लिए बैडरूम का रूख करने का हुक्म देती। उसका बूढ़ा शौहर अमूमन अपने बिजनेस टूर पर कहीं बाहर गया होता, और जब न गया होता तो मियाँ-बीवी आपस में लड़ते झगड़ते रहते। इसी तरह मेरे ढाई-तीन साल गुज़र गये। फिर एक रात क्या हुआ कि मियाँ बीवी का झगड़ा तूल पकड़ गया। मैंने कोई ध्यान नहीं दिया। उस रात मैं मजे से सोने की तैयारी कर रहा था। थोड़ी देर में बन्दूक की गोली चलने की आवाज़ सुनायी दी। मेरी सामत आयी थी कि मैं दौड़ा-दौड़ा उनके कमरे में जा पहुँचा-बस, फिर क्या ? सत्यवती के शौहर के खून के इलज़ाम में धर लिया गया।’’
‘‘पर खून तो सत्यवती ने ही किया था बाबा।’’

‘‘पर सत्यवती के वकील की बहसें सुनकर मुझे भी यकीन आ गया था कि खूनी मैं ही हूँ। ’’
‘‘बाबा क्या तुमने जुर्म का इकबाल कर लिया था ?’’
‘‘मेरे वकील ने मुझे राय दी कि फाँसी से बचने का यही एक तरीका है।’’
‘‘मगर....’’
‘‘अगर मगर क्या भाई ? जैसा भी जीना मिल जाए, मरना क्यों ? मेरी तो इस खयाल से ही जान निकलने लगती है कि पाँवों के नीचे से जमीन सरक गयी है और मैं गले से बँधकर हवा में लटक गया हूँ।’’
‘‘आगे की सारी कहानी हमें मालूम है बाबा।’’
‘‘हाँ मेरी सब कहानी का निचोड़ यह है कि जमीन जितनी भी चिकनी हो गिरने से बचे रहो या पैर फिसल भी जाए तो लुढ़क-लुढक कर के सीधे अपने किस्सों वाली गली में आ पहुँचो।’’

किस्सों वाली गली में पहुँचने से पहले भी बाबा लालू यही किस्सों वाली गली में ही रहता था इसीलिए वह पैदाइस पर बादलों से लपककर जंगल में आ गिरा। रीछनी का दूध-पीकर बड़ा हुआ और भेड़िये की पूँछ पकड़कर अल्लाहदित्ता के दरवाज़े पर आ पहुँचा और अल्लाहदित्ता भी न रहे तो सत्यवती की ख्वाबगाह के रास्ते यहाँ अपने ढ़ाई मंज़िला घर !
‘‘अल्लाह का शुक्र है !’’ सोच-सोचकर बाबा लालू के मुँह से अल्लाहदित्ता का तकिया कलाम झूम जाता।
 यहाँ काले पानी पहुँचने पर लालू कुछ अरसा तो जेल में बेड़ियों में रखा गया। उसकी खुसकिस्मती थी कि उन दिनों सहायक जेलर कोई स्टीवेन्स था जिसकी घनी, खारदार मूँछों तले फटे-फटे होठों से मीठे बोल इस तरह निकलते जैसे मैले रंग की झाड़ियों के झुण्ड से रंग-बिरंगे नन्हे-मुन्हे परिन्दे जो ठोड़ी तक ज़रा से झुककर उसके सारे को अपनी सजल उड़ान में भर लेते। यहाँ पहुँचने के दूसरे दिन ही लालू ने अचानक जो अपना सिर जेल की लोहे की सलाखों की तरफ उठाया तो स्टीवेन्स के फटे हुए होठों से एक नन्हा-मुन्ना परिन्दा उसके कदमों में उड़ आया।
‘‘माँ-बाप याड आ रहा है ?’’

लालू के पास रंगीन और चिपके कागज में लिपटी हुई एक टॉफी आ गिरी।
‘‘खाना सकटा !’’
‘‘चीं चीं ...च !’’ परिन्दा उसके कदमों से उड़कर सिर पर आ बैठा।
‘‘हाँ, हाँ, खाना सकटा !’’
लालू ने टॉफी उठाकर कागज समेत मुँह में डाल ली।
‘‘ची...च...चीं....।’’
लालू के मुँह में मिठास घुल रही थी और परिन्दा सिर पर चहचहाये जा रहा था।
स्टीवेन्स साहब की मेहरबानी से लालू की बेड़ियाँ चंद ही हफ्तों में खोल दी गयीं।
    ‘‘बेड़ियाँ खुल जाने पर मानो मेरी सज़ा पूरी हो ली और मैं आज़ाद हो गया।’’ अपनी कहनी का यह हिस्सा सुनाते हुए बाबा लालू गोया रीछनी का दूध घट-घट गले के नीचे उतार रहा होता, ‘‘खुले पैर चल-चलकर चौपाए पर भी अपने आप के असरफ-उल-मखलूकात समझने लगते हैं ।’’

‘‘अशरफ उल....क्या मतलब बाबा ?’’
बाबा मुस्कराकर सोचने लगता, इन बेचारों का क्या दोष ? अगर इन्हें ही एक बार अल्लाहदित्ता की चारपाई पर औंधे लेटने का मौका मिल जाता तो आप ही आप सब कुछ सीख जाते। वह पूछने वाले को जल्दी-जल्दी अशरफ-उल-मखलूकात या किसी और शब्द का मतलब समझकर अपनी बात की तरफ लौट आता, ‘‘आज़ाद कदम होकर सबसे पहले मैंने एक दौड़ लगायी और साँस फूल गयी तो अपने आप को समझाने लगा कि अब पैरों में कौन-सी बेड़ियाँ पड़ी हुई हैं। मौत तक चलते ही जाना है। आराम से कदम-ब-कदम चलकर बूढ़े होंगे। स्टीवेन्स साहब मुझसे बातें करने के लिए अक्सर मुझे रोक लिया करते थे। उन्होंने भी यही राय दी कि काम अगरचे हाथ-पैर हिलाने से ही पूरा होता है मगर सूझबूझ बरतने से बेहतर हो जाता है। मैंने उनकी नसीहत पर हमेशा अमल किया और वो मुझसे इतने खुश हुए कि कम से कम आज़माईसी मुद्दत पूरी होते ही मुझे सैल्युलर जेल से बैरके में भिजवा दिया....’’

‘‘ये वो ही स्टीवेन्स साहब हैं न बाबा, जिन्होंने खुदकुशी कर ली थी ?’’
‘‘हाँ, वो ही !’’ बाबा स्टीवेन्स का पूरा नाम पूरा चेहरा आँखों में लाने के लिए ज़रा रुककर बोला, ‘‘बड़ा नेक आदमी था। कैदियों को ढांढ़स बँधाय रहता था-उडास क्यों होना माँगटा ? हम सब लोग अपना कैद काट रहा है, तुम कोठारी में, मैं अपना बडन में...लो यह सिग्रेट पीना लकटा ! बाबा लालू अपनी ठण्डी साँस भरकर स्टीवेन्स साहब को अपने अन्दर उतार ले गया, ‘‘इतना नेक था, मालूम नहीं इतना दुखी क्यों था।’’
‘‘बाबा,’’ किसी ने उसे टोका, ‘‘जब इतना नेक था तो दुखी होगा ही।’’
‘‘गलत।’’ महन्त जालिम सिंह बाबा लालू का पुराना साथी था, ‘‘मैं खूब जानता हूँ लालू, मैं नेक वेक नईं, फिर हदसे खेलदे वी कयों दुःखी रहता हूँ ?’’

बाबा लालू ने महन्त को प्यार भरी नज़रों से देखकर सोचा कि जो आदमी उसकी तरह अपना हर काम जप बोल कर करता है, उसे क्या पता, वो कितना नेक है !
बाबा लालू के संगी-साथियों को तो बाबा से उससे किस्से सुनने का चक्का था ही मगर बाबा को अपने किस्से कहानियों से मुँह खाली कर लेने का मौका न मिलता रहता तो वह अपने भरे मुँह में रोटी का एक लुमका भी न ठूँस पाता।
‘‘अच्छा, यह बताओ बाबा, गौराँ चाची से पहली बार कहाँ मिले थे ?’’
‘‘अरे इतना भी नहीं जानते ? यहीं बैरकों में और कहाँ ?’’

‘‘हाँ, जब दोंनो के बैरकों की तयशुदा मुद्दत पूरी कर ली तो उन्हें बाकी की कैद में भी बैरकों में ही काम धन्धा मिल गया।’’
‘‘हाँ भाई, वो तो अच्छा हुआ मुझे काले पानी की सजा मिल गयी वरना तुम्हारी चाची से कहाँ मिलता ? उसे ढूँढ़ने किधर जाता ? मैं तो उसकी शक्लोसूरत से भी नावाफिक था।’’
‘‘नहीं बाबा, चाची के धोखे में तुम किसी और का हाथ भी जा पकड़ते तो मारा-मारी के बाद तुम्हें यहीं भेज दिया जाता।’’
‘‘हाँ, भाई संजोग बड़े बलवन होते हैं, सत्यवती से मुहँ काला किया तो चाची गौराँ नसीब हुई। बैरको में तो बहराल मुझे पहुँचना ही था।’’
‘‘चाची गौराँ जवान जहान थी मगर बरकों में सब छोटे-बड़े उसे चाची कहकर बुलाते थे।’’ बाबा लालू उन दिनों पहले डेढ़ साल तो बैरकों में पत्थर कूटता रहा मगर बकिया सालों में उसे स्थायी तौर में बैरकों के मैस में ड्यूटी सौंप दी गयी थी। एक दिन वह औरतों की एक पंक्ति में दाल बाँट रहा था कि चाची की प्याली में शायद उसने पूरी दाल न उँड़ेली। बस फिर क्या था, चाची ने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘जानते हो मैं कौन हूँ !’’

बाबा ने उसे बड़े ध्यान से देखा और वह उसे भा गयी, ‘‘तुम बताओगी बीबी तो क्यों न जानूँगा !’’
चाची ज़ात की कंजरी थी और काले पानी इसलिए आ पहुँची थी कि उसके किसी ग्राहक ने उसके साथ पूरी रात बसर कर पैसे मार कर चम्पत हो जाना चाहा और तू तू मैं मैं के दौरान गौराँ न उसे जोर से धक्का दिया तो वह कोठे के कमजोर जंगले समेत सड़क पर आ गिरा और गिरते ही दम तोड़ दिया और वह बेचारी खून के मुकदमे में फँस गयी।
‘‘बताओ न बीबी, कौन हो ?’’
‘‘बताऊँगी तो पता नहीं यहाँ काले पानी से भी आगे कहाँ जा पहुँचोगे,’’ चाची ने बाबा को जवाब दिया, ‘‘चुपचाप भाई बनकर पूरी दाल बाँटो और आगे बढ़ो।’’

बाबा ने हँसते हुए पूरी से भी दुगनी दाल उसकी प्याले में डाल दी, ‘‘मैं क्या तुम्हे भाई लगता हूँ बीबी ?’’
‘‘तो क्या तो तुम्हें अपना खसम बना लूँ ?’’ चाची ने ढीला होकर बनावटी गुस्से से कहा, ‘‘कोई ऐसी-वैसी नहीं पूरी कंजरी हूँ। चलो आगे बढ़ो।’’
उस रोज़ के बाद लालू का नियम बन गया कि दाल बाँटते हुए चाची तक पहुँचकर पहले तो ज़रा हँसता और फिर उसकी प्याली में दुगनी दाल डालकर उसे चोर आँखों से देखते हुए आगे बढ़ता।
उस तरह कई दिन बीत गये। और फिर एक दफा शाम के वक्त वह जरा बन-ठन कर बाहर घूमने निकला तो उसे पीछे से सुनाई दिया, ‘‘सुनो !’’
आवाज पहचानकर बाबा का दिल धक धक धड़कने लगा, कहो बीबी ।’’
चाची उसके पास आ खड़ी हुई, ‘‘मेरे खाने-पीने का इतना ध्यान क्यों रखते हो रे ?’’
‘‘तुम्हें बुरा लगता है बीबी ?’’
‘‘नहीं, अच्छा लगने लगा है।’’

उन दोंनो के कदम आप ही आप किसी एकान्त कोने की ओर उठने लगे।
‘‘मैंने सुना है...क्या नाम है तुम्हारा ?...लालू ! अच्छा मैंने सुना है लालू, दो-चार हफ्तों में हमारी यहाँ बैरकों से छुट्टी हो जाएगी।’’
‘‘हां,’’ लालू गोया मन ही मन में कोई बड़ा अहम फैसला कर रहा था।
‘‘तुम कहाँ जाओगी ?’’
‘‘चाहो तो तुम्हारे ही संग,’’ कंजरी ने आँखें मटकाकर जवाब दिया।
लालू से खुशी से चला न गया। ‘‘बैठो, यहीं जरा बैठ जाते हैं।’’
वे दोनों बैठ गये तो गौराँ उसे बताने लगी, ‘‘मैं कोई घर-गृहस्थिन नहीं हूं कि धोखा दे जाऊँ !’’
लालू ने चाची के बारे में पूरी तफसीलात मालूम कर रखी थीं, ‘‘मगर शादी तो हमें करनी ही होगी।’’
‘‘सच ?’’

बाबा लालू कहा करता, उस वक्त मुझे गौराँ उतनी प्यारी लग रही थी कि एक बार तो मैंने तय ही कर लिया कि शादी की ऐसी तैसी। सबकी नज़र बचाकर उसे उसी दम अपने कमरे में ले जाऊँ।
‘‘तुम पहले मर्द हो लालू, जिसने मुझसे शादी की बात की है,’’ चाची गौराँ ने किसी गृहस्थिन की तरह अपना सिर ढाँप लिया, ‘‘मुझे यकीन है सारी उम्र हिस्से से दुगनी दाल बाँटा करोगे।’’
‘‘तो तुम्हें मंजूर है ?’’

‘‘मंजूर क्यों नहीं होगा रे ? एकदम उम्र भर का सौदा करने पर राजी हो गये हो। यह कोई मामूली बात है ?’’
थोड़ी देर में वे जब वहाँ से उठने लगे तो लालू ने हँसकर दुल्हन चाची से पूछा, ‘‘मुझे भी धक्का देकर गिरा न दोगी बीबी ?’’
‘‘मुझे बीबी मत कहो,’’ चाची ने अपना दुपट्टा सिर से झटक दिया, ‘‘कभी किसी कंजरी से वास्ता पड़ा है ?’’ वह अपने मर्द के साथ जुड़कर खड़ी हो गयी, ‘‘हम लोग बदनाम जरूर हैं पर पाई-पाई का हिसाब चुकाये बगैर अपना दम भी नहीं निकलने देते।’’
             

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