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गीता प्रेस, गोरखपुर >> जीवन सुधार की बातें

जीवन सुधार की बातें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1038
आईएसबीएन :81-293-1254-9

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प्रस्तुत है जीवन सुधार की बातें...

Jeevan Sudhar Ki Batain a hindi book by Jaidayal Goyandaka - जीवन-सुधार की बातें - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

मनुष्य अनादिकाल से अनन्त योनियों में भटकता रहा है। जीव प्रत्येक जन्म-मरण के समय महान् दुःख पाता है और जीवनकाल में बड़े-बड़े दुःखों, व्याधियों का शिकार होता है। जबकि यह जीव जन्म-मरण से पिण्ड नहीं छुड़ा लेता तब तक उसकी यह दशा निरन्नतर रहती है। इस दशा को देखकर भगवान् उसे मनुष्य शरीर प्रदान करते हैं। मनुष्य शरीर पाकर भी यह अपना उद्धार नहीं करता तब भगवान् को इस पर बड़ा तरस आता है। इस तरस को गीता अध्याय 16 श्लोक 20 में ‘माम् अप्राप्य’ पद से भगवान् ने प्रकट किया है।

 नहीं तो आसुरी सम्पदावालों के लिये अपनी प्राप्ति कहने का प्रश्न नहीं उठता। भगवान् का अभिप्राय है कि इस जीव को मनुष्य शरीर देकर मेरे पास आने का एक महान् दुर्लभ अवसर दिया, फिर भी यह दुर्गुण दुराचारों में फँसकर मेरे पास नहीं आ सका, बल्कि और ज्यादा दुःखमय नरकों की तैयारी कर रहा है। भगवान् की अहैतुकी दया जीवों पर है, परन्तु इस विषय में महापुरुष किसी अंश में भगवान् से बढ़कर दयालु होते हैं। उनमें मनुष्यों के कल्याण का भाव बहुत अधिक होता है—‘राम ते अधिक राम कर दासा’। श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका भगवान् से अधिकार प्राप्त पुरुष थे, ऐसी हरामी धारणा है। उनके हर समय जीवों के कल्याण का भाव बना रहता हमारी धारणा है। उनके हर समय जीवों है, परन्तु इस विषय में महापुरुष किसी अंश में भगवान् से बढ़कर दयालू होते हैं। उनमें मनुष्यों के कल्याण का भाव बहुत अधिक होता है—‘राम ते अधिक राम कर दासा’। श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका का भगवान् से अधिकार प्राप्त पुरुष थे, ऐसी हमारी धारणा है। उनके हर समय जीवों के कल्याण का भाव बना रहता था। वे इस कार्य के लिये हर सम्भव प्रयास करते थे। उन्होंने अपना अधिकतर जीवन इस काम में तथा गीता-प्रचार में लगया।

इसके लिये वे स्थान-स्थान पर घूमकर तथा ग्रीष्मकाल में गीताभवन स्वर्गाश्रम में तीन-चार महीने ठहरकर अपने अनुभव के आधार पर प्रवचन किया करते थे। किसी सज्जन ने उन प्रवचनों को संगृहीत कर लिया। उन प्रवचनों को पुस्तक का रूप दिया जा रहा है। इन प्रवचनों में भगवन्नाम-जप, ध्यान, निःस्वार्थ सेवा, अतिथि-सेवा, तीर्थों में नियमों का पालन, तीर्थों में जाते समय अपने साथी पर विपत्ति आने पर उसे किसी अवस्था में न छोड़ना, पातिव्रत धर्म का पालन, दम्भी, पाखण्डी, धर्मध्वजी लोग जो कण्ठी धारण कराते फिरते हैं उनके पंजे में न फँसना, हमारा जीवन कैसे सुधरे, इन बातों पर बहुत जोर दिया है। इसके अलावा गीताजी के श्लोकों के भाव खोले हैं।

भगवत्प्राप्ति के इच्छुक भाई-बहनों से विनम्र निवेदन है कि इन लेखों को मनोयोग पूर्वक अवश्य पढ़ें तथा अन्य भाई-बहनों को भी पढ़ने के लिये प्रेरित करें। हमें आशा है कि यह पुस्तक सबके लिये जीवन ऊँचा उठाने तथा कल्याण-मार्ग में विशेष सहायक होगी।

-प्रकाशक

प्रेम का व्यवहार एवं सेवा की महत्ता



आपमें कोई दोष घटता हो वह मैं देखना नहीं चाहता, क्योंकि इसमें आपकी भी हानि है और लोगों को भी हानि है। हम लोग आपस में मित्र हैं, आपको संकोच नहीं हो तो आपके दोष बतला सकता हूँ, मेरे में कोई दोष हो तो आपको भी बताने में संकोच नहीं करना चाहिये। इसमें दो बातों की प्रधानता है—मैं प्रेरणा नहीं करूँ तब तो आपको बतानें में संकोच होना चाहिये या नाराज होऊँ तो भी नहीं बताना चाहिये।

घटोत्कच की मृत्यु के समय सब शोक कर रहे हैं, भगवान् श्रीकृष्ण हँस रहे हैं। अर्जुन ने पूछा कि आप असमय क्यों हँस रहे हैं। अर्जुन ने यह नहीं समझा कि भगवान् तो ठीक कर रहे हैं, उन्होंने तो अपनी अज्ञता प्रकट की, भगवान् ने उत्तर दिया तुम जानते हो कर्ण ने घटोत्कच को मारा है; पर मैं कहता हूँ कि इन्द्र की दी हुई शक्ति को निष्फल करके घटोत्कच ने ही कर्ण को मार डाला है। अब तुम कर्ण को मरा हुआ ही समझो। आपस की कोई भी बात संकोच छोड़कर प्रेम से कहनी चाहिये। आज अन्न के बिना लोग भूखे मरें, यद्यपि कहीं से लूटकर माल नहीं लाते हैं, पर लूटकर भी ले आया जाय, चोरी डकैती करनी पड़े तो भी वह दोष की बात नहीं है, स्वरूप तो उसका चोरी है। दूसरी ओर यह बात भी है कि वह कुछ भी नहीं करे, देखता रहे तो भी कोई दोष की बात नहीं है। ज्ञानी की बात सभी ऊँचे पुरुषों में लागू पड़ती है।

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।

(गीता 18/17)

जिस पुरुष के अन्तःकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिस की बुद्दि सांसारित पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है।

वह किसी को काटता नहीं, परन्तु न्याय से आकर यह कर्म प्राप्त हो जाय तो काटना भी दोष नहीं है। दोष होता है तो अर्जुन किस प्रकार युद्ध करते। वह युद्ध दुर्योधन के लिये धर्ममय नहीं था, उसके लिये तो पापमय था। हर एक बात की ओर ध्यान देना चाहिये।
स्वाभाविक कोई बात ध्यान में आये और वह बतलायी नहीं जाय तो समझना चाहिये कि आपस में बहुत प्रेम नहीं है। जिसमें ममता, अहंकार, आसक्ति नहीं है उसकी सभी क्रिया निर्दोष है।
बहुत पुरुषों की आवश्यकता नहीं है। हम लोग दस व्यक्ति हैं एक-दूसरे की कमी बता दिया करें। परमात्मा की स्मृति भी एक-दूसरे को देखकर स्वतः ही हो जानी चाहिये, आपस में सरलता तथा प्रेम का व्यवहार होना चाहिये।
आपलोगों का और मेरा आपस में निष्काम प्रेम हो तो बहुत शीघ्र सुधार हो जाना चाहिये। अज्ञान से बाधा लगती है। मैं यदि आपका हितैषी हूँ एवं आपको बता दिया कि आपकी यह भूल है तो आपकी सुधार उसी समय हो जाना चाहिये। यदि आपकी दृष्टि में भूल नहीं है तो सफाई देने की आवश्यकता नहीं है।

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी चुप बैठे हैं; शिशुपाल गालियाँ बक रहा है। भीमसेन गदा लेकर तैयार होते हैं, कोई भगवान् को गाली दे, वे यह सह नहीं सकते। भीष्मजी उन्हें सावधान कर देते हैं कि भगवान् तो सर्वसमर्थ हैं,  वे सुन रहे हैं अतः हमें भी सुनना चाहिये।

मैं आप लोगों में बहुत-से दोष देखता हूँ, किन्तु आप लोगों को नहीं बताता; क्योंकि मुझे संकोच होता है। आपका व्यवहार ऐसा होना चाहिये कि मुझे संकोच नहीं हो। मुझे ऐसा निर्भय कर देना चाहिये कि संकोच ही न हो। मुझे तो सबके लिये संकोच होता है। कम-से-कम संकोच स्वामी रामसुखदासजी के लिये होता है। ऐसा तो कोई आदमी भी नहीं मिला, जिसके लिये संकोच नहीं हो, उनका कोई दोष बताया जाय तो उनका सुधार बहुत शीघ्र हो जाय एवं प्रसन्नता हो। वास्तव में उनकी भूल नहीं है, अपितु मेरी भूल है, अज्ञान में मेरी भूल है तो अपनी भूल मानने लग जाते हैं। कभी-कभी वे कह भी देते हैं कि इस तरह यह बात है तो मैं उनकी बात स्वीकार कर लेता हूँ। वास्तव में तो उनका अधिक हित इसमें होता है कि मैं भूल बताता तो वे उसी प्रकार सुधार कर लेते, परन्तु उनके ध्यान में आ गयी तो कह देना भी ठीक है, ध्यान में ही नहीं आती तो और ठीक थी।

सब लोग सेवा के लिये युद्ध की तरह तत्पर हो जायँ। मैंने कलकत्ता में एक स्त्री को कोढ़ियों की सेवा करते देखा, मैं उसका सेवाभाव तो भूल ही नहीं सकता, उसको सब मदर कहते थे। वह जाति की अंग्रेज थी एवं कोढ़ियों की सेवा पुत्रों की तरह करती थी। लच्छीरामजी मरोदिया की सेवा सराहनीय है; किन्तु उस स्त्री के सामने कुछ भी नहीं है। भगवान् मुझसे पूछेंगे तो मैं यही कहूँ कि सेवा के भाव से यदि मुक्ति होती है तो पहले उस स्त्री की होनी चाहिये। वंशीधरजी केडिया ने मुझे वह सेवा दिखायी थी, अतः उनको भी धन्यवाद देता हूँ। कोई सेवा सीखना चाहे तो उससे सीखना चाहिये। सेवा कैसी, जैसे युद्ध में जुझारू बाजा बजे तो कायर भी झूम जाते हैं।

श्री हमनुमान जी में सेवाभाव था, ब्रह्मचर्य-पालन का बल था, नाम लिया जाता है, माता-पिता की भक्ति में श्रवणकुमार का नाम लिया जाता है, दुष्टों में कंस का नाम लिया जाता है।
परमात्मा से प्रार्थना करें कि कंश की पदवी स्वप्न में भी न दें, वह पद तो खाली ही रखें। आनन्द में मग्न होकर सेवा करे। सेवा इस भाव से करे—


सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।।


सेवा में प्रत्यक्ष आनन्द होता है। आपके यदि यह बात समझ में आ जाय तो इस बात के लिये झगड़ा होगा कि वह तो कहे मैं करूँगा और वह कहे कि मैं करूँगा। मन नहीं माने जूझने लग जाय। मेरे तो मन में यही आता है कि वही काम करें, इसमें प्रत्यक्ष आनन्द मिलता है, दुखियों की सेवा से भगवान् शीघ्र प्रकट हो जाते हैं। जैसे कीर्तन में भगवान् विशेष रूप से आते हैं, वैसे ही दीन-दुखियों की सेवा से विशेष रूप से आते हैं  सच्चे महात्मा मिल जाते हैं तो सेवा करने के लिये लड़ाई होती है। वैसे ही ये दीन-दुःखी परमात्मा हैं उनकी सेवा में रसास्वाद लेना चाहिये। विरक्त पुरुष वैराग्य में रसास्वाद लेता है। मर्म न समझकर भी यदि सेवा करे, वीरता से युद्ध करे, वहाँ दया रस है वहाँ वीर रस है, इससे प्रत्यक्ष शान्ति मिलती है। जो दूसरे के सुख से सुखी और दूसरों के–दुःख से दुःखी होता है वह महात्मा है। सबसे सार बात यह है—

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

सबके दुःख से दुःखी होना यानि उनके दुःख को परे करने की चेष्टा करनी चाहिये, भूखों को जिस तरह अन्न मिले वैसा प्रयास करना चाहिये।


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