लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> सम्पूर्ण दुःखों का अभाव कैसे हो

सम्पूर्ण दुःखों का अभाव कैसे हो

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1048
आईएसबीएन :81-293-0887-8

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

185 पाठक हैं

प्रस्तुत है सम्पूर्ण दुःखों का अभाव कैसे हो....

Sampoorna Dukhon Ka Abhav Kaise Ho a hindi book by Jaidayal Goyandaka - सम्पूर्ण दुःखों का अभाव कैसे हो - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीहरि:।।

निवेदन

भक्तियोग, ज्ञानयोग, तथा कर्मयोग-भगवत्प्राप्ति ये तीन स्वतंत्र साधन माने गये हैं। मनुष्य में तीन प्रकार की शक्तियाँ भगवान् से प्राप्त हैं- श्रद्धा-विश्वास करने की, जानने की तथा करने की, इन तीन प्रकार की शक्तियों के आधार पर क्रमश: उपरोक्त तीन साधन हैं। गीता प्रेस के संस्थापक श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका विशेष पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं थे, परन्तु उन्होंने ज्ञानयोग का साधन सीढ़ी-दर-सीढ़ी स्वयं किया था और तत्त्व की प्राप्ति की। उन्हें निष्काम भाव का आचार्य भी कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी, उनके अणु-अणु में निष्काम भाव था। उन्होंने स्वयं एक बात कही थी कि भक्ति की प्राप्ति उन्हें भगवत्कृपा से हुई। भगवान् से जो वस्तु प्राप्त होती है वह पूरी-की-पूरी होती है, अत: उन्हें भगवत्प्रेम भी पूरा प्राप्त था। इस प्रकार तीनों प्रकार के साधनों में पारंगत महापुरुष बहुत कम मिलते हैं।

ऐसे महापुरुष ने जीवों के कल्याण के लिये इन तीनों प्रकार के साधनों का विवेचन समय-समय पर अपने प्रवचनों में किया है। वे प्रवचन भी एकान्त में गंगा के किनारे महान् पवित्र भूमि स्वर्गाश्रम में, जंगल में, वटवृक्ष के नीचे दिये गये थे। वे प्रवचन किन्हीं सज्जन ने लिख लिये थे। उन प्रवचनों को पुस्तकरूप देकर प्रकाशित किया जा रहा है। इनको प्रकाशित करने का हमारा उद्देश्य यही है कि जिस साधन में हम चल रहे हैं, उसका मर्म समझकर हम शीघ्र-से-शीघ्र अपने लक्ष्य परमात्म प्राप्ति को प्राप्त कर लें। इन प्रवचनों में ऐसे भी प्रवचन हैं जिनमें गृहस्थ में रहते हुए अपने व्यवहार को कैसे सुधारें। हमें आशा है कि इस पुस्तक से पाठकों का विशेष रूप से आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक लाभ होगा। इसलिये विनम्र प्रार्थना है कि इन्हें मनोयोगपूर्वक स्वयं पढ़ें और यदि आपको लाभ मालूम दे तो अपने मित्र-बान्धवों को भी पढ़ने की प्रेरणा दें।

प्रकाशक

।।श्रीहरि:।।

सम्पूर्ण दु:खों का अभाव कैसे हो ?


आज निराकार के ध्यान का प्रकरण है। ध्यान के लिये सबसे बढ़कर एकान्त स्थान की आवश्यकता है। यह भूमि तपोभूमि है, भगवती भागीरथी का किनारा होने से परम पवित्र है, वन है। ध्यान के स्थान में बिछाने के लिये भगवान् ने बताया है-


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।।


गीता 6/11)


शुद्ध भूमि में, जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, जो न बहुत ऊँचा है और न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को स्थिर स्थापन करे।
उसकी जगह गंगाजी की रेणुका यहाँ पर है, उस पर आसन लगाकर बैठना चाहिये। शरीर से स्थिर एवं सुखपूर्वक बैठना चाहिये। भगवान् ने बताया है-


समं कायाशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवोकयन्।।


(गीता 6/13)


काया, सिर और गले को समान एवं अचल धारण करके और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभागपर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ।
-------------------------------------------------
प्रवचन दिनांक 5-5-1941, प्रातःकाल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम।

देह, मस्तक, ग्रीवा को समान रखे, अचल रखे, निद्रा नहीं आये तो नेत्र बन्द भी कर सकते हैं।
फिर हृदय की कामनाओं का त्याग कर देना चाहिये। मन से यह पूछे तुम क्या चाहते हो यही आवाज निकले कुछ नहीं। इच्छा, कामना का सर्वथा अभाव कर दे। किसी की स्पृहा आकांक्षा नहीं है। यह सब राग से उत्पन्न होते हैं-


ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।।


(गीता 2/62)


विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।

राग-आसक्ति के अभाव का नाम वैराग्य है। संसार के सारे पदार्थ क्षणभंगुर, अनित्य हैं ऐसा समझकर जो विवेकपूर्वक वैराग्य होता है वही असली वैराग्य है। यहाँ तो अपने-आप वैराग्य होता है। यहाँ वन, पहाड़, गंगा तीन चीजें ही दीखती हैं। वन को देखने से स्वाभाविक वैराग्य हो जाता है। गंगा के दर्शन से, स्पर्श से वैराग्य होता है। पहाड़ों की कन्दरा वैराग्य उत्पन्न करनेवाली है।

गंगा की ध्वनि आ रही है, मानो वेद की ध्वनि है। गंगा की वायु लगने से शरीर पवित्र हो जाता है। पवित्र गंध आती है, उससे नासिका पवित्र होकर अन्त:करण पवित्र हो जाता है। उससे वैराग्य होता है। वैराग्य होने के बाद फिर उपरति होती है। इन्द्रियों की वृत्तियाँ जो बाहर में जा रही हैं उनका विषयों से संबंध विच्छेद कर देना यही बाहर के विषयों का त्याग है। फिर फुरणा से रहित होकर उपरामता को प्राप्त हो जाता है, फिर परमात्मा का ध्यान करो। यदि यह सारा संसार दीखने लगे तो यही समझना चाहिये अपनी आत्मा का ही संकल्प है। गीता में भगवान् बताते हैं-


सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:।।


(गीता 6/29)


सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त आत्मावाला तथा सबमें समभाव से देखनेवाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है।
जैसे अज्ञानी आदमी अपने शरीर में आत्मभाव रखता है, ऐसे ही ज्ञानी महात्मा सम्पूर्ण ब्राह्मण्ड में अपनी आत्मा को देखते हैं। जीवात्मा, परमात्मा की एकता का नाम है योग, उसमें जिसकी आत्मा जुड़ी हो उसका नाम है योगयुक्तात्मा। अथवा योग के द्वारा परमात्मा के स्वरूप में युक्त आत्मा है जिसकी, उसको योगयुक्तात्मा कहते हैं।


प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्।।


(गीता 6/27)


जिसका मन शान्त है, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, जो पाप से रहित है ऐसा योगी उत्तम सुख को प्राप्त होता है। उत्तम सुख क्या है ? परमात्मा की प्राप्ति। ब्रह्म सम होता है, इसलिये उस ब्रह्मभूत योगी की समता में स्थिति है।


इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:।।


(गीता 5/19)


उनके द्वारा संसार यहीं जीत लिया गया, जिनका मन समता में स्थित है। ब्रह्म सम है इसलिये जिसकी समता में स्थिति है उसकी ब्रह्म में स्थिति है। ब्रह्म के लक्षण जिस रूप में घटें वह ब्रह्म में स्थित है।

अपनी आत्मा को आकाश की तरह तथा सारे दृश्य को बादल की तरह देखे। वस्तु से यही बात है। विचार करने से सिद्ध होता है कि एक आत्मा के सिवाय कुछ नहीं है।


यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा।।


(गीता 13/30)


जिस क्षण यह पुरुष भूतों के पृथक्-पृथक् भाव को एक परमात्मा में ही स्थित तथा उस परमात्मा से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

जैसे आकाश में बादल, बादलों में आकाश है आकाश से बादलों की उत्पत्ति होती है, बादल उसी में रहता है, उसी में विलीन हो जाता है। इसी तरह संसार की उत्पत्ति परमात्मा से होती है, यह परमात्मा में ही स्थित और परमात्मा में ही विलीन हो जाता है।

 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book