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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण

केवल आज्ञापालनसे कल्याण हो सकता है और कोई शर्त नहीं है। आज्ञापालनसे श्रद्धा, प्रेम स्वत: ही होगा। केवल भगवत्स्मरण करनेसे भी कल्याण हो जाता है।

सुने एवं सुनने के अनुसार चले, उनके विधानमें प्रसन्न होता रहे। हम भजनको बेगार समझते हैं, भजन भाररूप मालूम देता है। भगवान् भी समझते हैं कि ये बेचारे भजन, ध्यानसे डरते हैं।

प्रह्लादने कहा-जो कहो सो मान सकता हूँ पर भगवान्का भजन नहीं छोड़ सकता।

संसारमें कई उदाहरण मिल जाते हैं जो सब कुछ छोड़ सकते नहीं छोड़ सकते। परंतु जिस कामकी अपने मनमें महत्ता मान रखी है, उसे नहीं छोड़ सकते हैं, इसी तरह भगवान्के लिये हो जाय कि सब कुछ छोड़ सकते हैं, पर भगवान्को नहीं छोड़ सकते तो कल्याण हो जाय। धनके लिये घरवालोंको छोड़ सकते हैं। धनको जितना महत्व देते हैं, उतना भगवान्को नहीं देते। यह हो जाय कि भगवान्के लिये रुपया, स्त्री सबको छोड़ सकते हैं तो समझना चाहिये कि भगवान्को महत्त्व दिया है।

मनुष्य छोटा बनना चाहे तो उसको कहीं रुकावट नहीं है, बड़ा बननेमें रुकावट है। हम तो जितनी बात कहते हैं छोटा बननेकी कहते हैं। यदि सबसे हम प्रणाम करवायें तो हमारे हाथकी बात नहीं है, किन्तु दूसरोंको तो प्रणाम कर ही सकते हैं।

मानसिक करनेसे दम्भ, अश्रद्धाकी गुंजाइश नहीं है। मनसे ईश्वरकी भक्ति करें तो वहाँ दम्भ कहाँसे घुसेगा। उत्तम मानसिक भावमें दम्भ आदि नहीं घुस सकते।

केवल नामजप, केवल आज्ञापालन, केवल भगवान् के विधानमें संतोष करनेसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। यदि भगवान्की आज्ञाका पालन नहीं कर सके तो भी जिसकी आज्ञापालन करें, उसका जिस चीज में अधिकार हो उसकी प्राप्ति हो जाती है।

योगी बननेके लिये योगीकी आज्ञाका पालन करे तो योगी बन सकता है। जिस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये जिसकी आज्ञापालन की जाती है, उसके अधिकारमें वह चीज हो तो वह मिल सकती है।

स्वामीकी आज्ञाका पालन कैसे करना चाहिये, यह शंकरलाल गोयन्दकासे सीख सकते हो। रुपयोंके लिये आज्ञापालन करता है, केवल एक ही बात है कि स्वामी किस प्रकार संतुष्ट हों, उसे मैं आदर्श मानता हूँ। रोकड़का काम कर रहा है, रोकड़ जोड़ रहा है, मैंने कहा-नाईको बुला दी, झट रोकड़को छोड़ दिया, उसी कामको पहले किया। नमूना सीखनेलायक है।

किस तरह सबको प्रसन्न करके आज्ञापालन किया जाय, उससे सीखना चाहिये। आप उसकी यह सेवा देखकर मुग्ध हो जायेंगे। शास्त्रोंमें उदाहरण आता है-छायाकी तरह, संकेतके अनुसार काम करता है। चालीस वर्ष सत्संग करके हमारे बीच ऐसा आदमी तैयार नहीं हुआ। गुण लेना मामूली बात नहीं है।

मैं जोरके साथ कह सकता हूँ, यदि कोई भगवान्की प्राप्तिके लिये इस तरह आज्ञापालन करे तो वह काम बहुत दिनका नहीं है। कोई भी श्रेष्ठ पुरुष हों उनकी आज्ञाका पालन करे। परमात्माकी प्राप्ति करनेके योग्य पुरुष हों उनकी आज्ञाका पालन करे।

धर्मपालनके लिये रुपयोंकी आवश्यकता नहीं है। अन्यथा गरीब आदमी किस तरह धर्मका पालन कर सकते।

भगवान्का काम समझकर काम कर-करके प्रसन्न होवे। बीस आदमी भले ही निन्दा करें, भगवान्को संतोष है। आप भगवान्के निकट पहुँच रहे हैं। भले ही आपका काम लोगोंको बुरा लगे, पर भगवान् प्रसन्न हैं तो आप भगवान्के निकट हैं।

किसी दुकानदारकी नौकरी करते हैं। उसको प्रसन्न करते हैं, रुपया मिल जायगा। उसी दुकानदारकी आज्ञाका पालन भगवान्के लिये करे तो भावसे उसे परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी। वह उसके उत्तम भावके कारण पवित्र हो जायगा। नीयत बहुत ऊँची होनी चाहिये। यह बात प्रत्यक्ष है।

मैं तन, मन, धनसे सब प्रकारसे गीताप्रेसकी सेवा करूं, फल चाहूँ कि मेरी कीर्ति हो। सेवा चीज तो बहुत अच्छी है पर परिणाममें क्या मिलेगा? मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा।

एक गरीब आदमी है वह कैसे सेवा कर सकता है, न समय लगा सकता है, न शरीर लगा सकता है? वह भावसे सेवा कर सकता है। यह भगवान्का काम है, यह उसकी नीयत है। मान, बढ़ाई की चाह नहीं है, लोगों का उद्धार हो, यही उसकी नीयत है। कुछ भी नहीं चाहेगा तो उसे भगवान् मिल जायेंगे। केवल मानसिक भावसे उसका कल्याण हो जायगा।

कोई कहे कि एकान्तमें थोड़ी देर बात करूंगा। एकान्तमें किसलिये बात करोगे? इसलिये कि समूहमें बात करनेमें विशेष बातें नहीं हो पातीं, एकान्तमें हो जाती हैं। एकान्तमें बात करके भी नीयत ऊँचे दर्जेकी नहीं हो तो यह बात ऊँचे दर्जेकी नहीं है।

किसी प्रकार हो, जिसमें स्वार्थ काा सम्बन्ध है, वह नीचे दर्जे की बात है। जिसमें जितना हृदयसे त्याग है, उतना ही ऊँचा दर्जा है, दूसरे आदमीको पता भी न लगे। क्रिया भी ऊँची हो, भाव भी ऊँचा हो तो परमात्माकी प्राप्ति मिनटोंमें हो जाय। क्रिया ऊँची है, भाव ऊँचा नहीं है तो बरसों लगेंगे। यह सब बात इसके पेटमें है-

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
(गीता 2।40)

इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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