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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

भगवान् वशमें कैसे हों?

किसीको वशमें करना हो तो उनकी सेवा करो, गुण गाओ, विष्णु, महेश सब प्रसन्न हो जाते हैं। किसीको वशमें करना हो तो यह विद्या सबसे बढ़कर है। फिर भगवान्को ही वशमें क्यों न करें, जिससे सब वशमें हो जायें। भगवान् कहते हैं जो मेरी भक्ति करता है वह यदि मुझे बेचे तो मैं बिकनेके लिये तैयार हूँ-

बेचे तो बिक जाऊँ नरसी म्हारो सिर धणी।

संसारके सब पदार्थ धनसे मिलते हैं पर भगवान् धनसे नहीं मिलते। स्वयं अपने-आपको भगवान्के अर्पण कर दे तो भगवान्का यह नियम है कि वे भतके वशमें हो जाते हैं। भगवान्को यदि खरीदना हो तो सबसे बढ़कर यह विद्या हैसत्य बोलना, दूसरेकी स्त्रीको माताके समान मानना और भगवान्के अधीन रहना।

सत्य वचन आधीनता परतिय मात समान।
इतनेमें हरि ना मिलें तुलसीदास जमान।।

एक ही बात ऐसी है जिसके धारण करनेसे सब अपने-आप आ जाती है। राजाको बुलानेसे सारी सेना आ जाती है। उसी तरह भगवान्की भक्तिसे सारे गुण और दैवी सम्पदा आ जाती है। वह सद्गुण-सदाचारकी मूर्ति बन जाता है। आपसे और बात बने तो ठीक है, अन्यथा भगवान्को अवश्य याद रखें। जड़में भगवान् हैं।

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।
(गीता १५।१)

आदिपुरुष परमेश्वररूप मूलवाले और ब्रह्मारूप मनुष्य शाखावाले जिस संसाररूप पीपलके वृक्षको अविनाशी कहते हैं; तथा वेद जिसके पत्ते कहे गये हैं-उस संसाररूप वृक्षको जो पुरुष मूलरहित तत्त्वसे जानता है, वह वेदके तात्पर्य को जाननेवाला है।

उद्दालक ऋषिके पुत्रका नाम श्वेतकेतु था। वेद-वेदान्त आदि पढ़कर आनेके बाद उसने कहा-मैं विद्वान् हूँ। अहंकार आ गया और पिताको मूर्ख समझकर नमस्कार नहीं किया। वास्तवमें जो अपनेको पण्डित समझे वह मूर्ख है। पिताने कहा-बेटा! वह विद्या सीखे कि नहीं जिस एक बातके जाननेसे सारी बातका ज्ञान हो जाय। लड़केने कहा यह तो नहीं पढ़ी। पिता बोले-एक परमात्माका ज्ञान होनेसे सबका ज्ञान हो जायगा। उन्होंने पहले ही सोच लिया था कि वह ज्ञान होता तो अहंकार नहीं आता।

लड़का यदि सौ वर्ष माता-पिताकी सेवा करे तब भी वह उनसे उऋण नहीं हो सकता, चाहे आजीवन सेवा करे।

यन्मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्।
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि।।

एकके ज्ञानसे सबका ज्ञान कैसे होता है? जैसे सोनेका जिसको ज्ञान हो गया, उसे सोनेके आभूषण सोना दीखने लगे,

लोहेका ज्ञान होनेपर तमाम अस्त्र-शस्त्र लोहा दीखने लगे। मिट्टीका ज्ञान होनेपर तमाम बरतन मिट्टी दीखने लगे। भगवान् गीतामें कहते हैं-

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
(गीता ७।१९)

बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।

परमात्माके ज्ञानसे सारे ब्रह्माण्डका ज्ञान हो जाता है। अपने तो यह समझ लो कि जो समय गया सो गया, अब बाकी समय हरिमें लगा दो। अब तो यही निश्चय कर लो कि जो कुछ अच्छा या बुरा बीत गया सो बीत गया, अब बाकी समय चलते, उठते, बैठते, खाते हर समय परमात्माको याद करना चाहिये। अपने आपको भगवान्में लगा दें।

मैं आशिक तेरे रूपपर बिन मिले सबर नहीं होती।

यह भाव धारण होनेपर भगवान्को बाध्य होकर आना पड़ेगा। भगवान् प्रेमसे मिलते हैं।

हरि व्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।

हरि सबके पापोंका हरण करनेवाले, पापीसे पापीको पवित्र बनानेवाले, पवित्रोंमें पवित्र, मंगलोंमें मंगल हैं-ऐसे भगवान् सर्वत्र विराजमान हैं। दियासलाईकी रगड़से जैसे आग उत्पन्न होती है, उसी तरह प्रेमकी रगड़से परमात्मा मिलते हैं। अपने-आपको धूलमें मिला दे, खूब लगन लगा दे। अथवा यह इच्छा करे कि हमारे शरीरकी धूल हो जाय और उसपर भगवान् शयन करें तो हमारा जन्म सफल हो जाय। अपने-आपको भगवान्के समर्पण कर दे। गमछेका मालिक चाहे जिस तरह काममें ले उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं है, इसी तरह अपने-आपको परमात्माके अर्पण कर देवे। आजतकका जो समय बीता सो बीता, पर बाकी समय परमात्मामें लगा दे। प्रेममें पागल हो जाय, ऐसे पागलकी आवश्यकता है। लोग पागल होते हैं धनके लिये, पर तुम पागल बनो भगवान्के लिये। सीताजी भगवान्के विरहमें व्याकुल हो रही हैं, विलाप कर रही हैं, भगवान् भी सीताके विरहमें व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं। जरा सोचो क्या भगवान् व्याकुल हो सकते हैं? पर जब सीता व्याकुल है तभी प्रेममें भगवान् व्याकुल हैं। भगवान्को पहले पागल बनाना हो तो तुम प्रेममें पागल बन जाओ।

संसारसे वैराग्य और भगवान्से प्रेम-ये दो ही चीज हैं। संसाररूपी वृक्षको एकदमसे काट डाले और अपने-आपको भगवान्में लगा दे। संसाररूपी दृढ़ मूलवाले वृक्षको वैराग्यरूपी अस्त्रसे काट दे फिर उस परम रत्न परमात्माकी खोज करे। संसारको उत्पन्न करनेवाले और विस्तार करनेवाले भगवान् हैं। हम सैकड़ों कोसोंसे तीन महीनेके लिये यहाँ आते हैं। कई महीने तीर्थयात्रा की, खूब भटके, ऐसी जगह नहीं मिली। भगवान्ने यह स्थान पहलेसे ही हमलोगोंके लिये तैयार कर रखा था। सिर्फ इसकी रक्षाके लिये चारों तरफ पत्थर खींचे गये हैं। इसकी सेवा इसको ही सब कुछ जानकर एक लोटा जल डाल दे। यज्ञ और तपके भोक्ता भगवान् हैं, मानो अग्निरूपसे भगवान् ही उस चीजको ले रहे हैं। देवताकी पूजा करें तो यह समझना चाहिये कि भगवान् ही देवताके रूपमें पूजा करा रहे हैं। इस तरह सबमें ऐसे ही समझे। उसी तरह इस वटवृक्षको समझे।

नामदेवजीके घरमें आग लगी तो लोगोंने कहा-आपके घरमें आग लगी है। भागकर आये, कहा-प्रभो! आपने आधेका ही भोग लगाया। आधेका क्यों नहीं लगाया, हे भगवन्! इसने क्या अपराध किया। आपने खूब कृपा की, अग्निरूपमें हमारे घरमें पधारे। एक कुत्ता दो रोटी उठाकर भागा तो पीछे घीका कटोरा लेकर भागे, महाराज चुपड़ी हुई नहीं है, चुपड़वा तो लो भगवान्को प्रकट होना ही पड़ा।

हमारे यहाँ भगवान् बहुत सस्ते हैं, एक लोटा जलमें मिल सकते हैं, पर भाव ऐसा होना चाहिये। समुद्रमें जिस तरह लहरें उठती हैं उसी तरह इस स्थानपर वैराग्य उठता है। वनके बीच में जानेसे एकदम वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। यहाँ तो तीन चीजें दिखायी देती हैं-गंगा किनारा, पहाड़ एवं वृक्ष, पर वहाँ वनमें सिर्फ वृक्ष-ही-वृक्ष दिखायी देते हैं। अपनी पहाड़की गुफा प्राकृतिक है। मेहनत-मजूरीवाले ऐसा नहीं बना सकते, गंगाने बनायी है। ईश्वरकी हमलोगोंपर पूर्ण दया है, उन्होंने सब सामान सजा रखा है। अपनेको तो यहाँ आकर डेरा डाल देना है। भगवान्की शरण होना हमारा काम है, और कुछ नहीं। सारा प्रबन्ध भगवान्ने कर दिया, गंगास्नान, जप, तप चाहे सो कर लो, पर भगवत्-भजन करो। गंगाके दर्शनसे पाप समाप्त हो जाते हैं। यहाँ तो खाने-पीने सबमें गंगा-ही-गंगा हैं। गंगाकी रेणुका जो मरनेके समय लाख रुपये देनेपर भी बीकानेर आदिमें एक मुट्ठी नहीं मिल सकती, यहाँ बिखरी पड़ी है। इसे तो भगीरथ ही लाये थे। जो विशेष परिश्रम करता है, उसके लिये कहते हैं उसका परिश्रम भगीरथ परिश्रम है। इसलिये भगीरथको धन्यवाद देना चाहिये, जो उनकी कृपासे हमलोगोंको गंगाजी सुलभ हुईं। तुलसीदासजी चले गये पर उनकी रामायण लाखों, करोड़ों मनुष्योंका उद्धार कर रहा है। संसारसे वैराग्य और भक्तिमें प्रेम यही एक चीज सार है। सारे बिखरे हुए प्रेमको बटोरकर भगवान्में लगा दे। सबमें सोलह आने प्रेम है उसको हटाये और परमात्मामें लगावे। एकसे तोड़े और एकसे जोड़े।

भगवान्में प्रेम लगाकर संसारसे आसक्ति मिटाकर चाहे मनको कह दो कि अब तुम चाहे जहाँ जाओ, जहाँ प्रेम नहीं होता, वहाँ जाना नहीं होता। मल-मूत्रमें कोई भी प्रेम नहीं करता है, इसी प्रकार संसारको त्याग दे। संसाररूपी बगीचेमें रहते हुए और उसको न छूते हुए रहे। तमाम भोग मल-मूत्रके समान प्रतीत हों। जिस तरह साधु बगीचेमें रहते हुए भी फूल नहीं तोड़ते। इत्र, फुलेल आदिको गधेका पेशाब समझे। ऐसे ही मेवा, मिष्ठान्नको समझे, ऐसे ही अन्य भोग्य पदार्थोंको समझे। वैराग्यसे उपरति होगी और उपरतिसे ईश्वरका ध्यान होगा। वैराग्यसे जो सुख है उससे बढ़कर सुख परमात्माके ध्यानमें है और ध्यानसे अनन्तगुण सुख भगवान्से मिलकर है। उससे बढ़कर कोई भी आनन्द नहीं है। इस कलियुगमें भगवान्के पास जानेकी सीधी सड़क है। जो काम वर्षोंका था वह दिनोंमें होता है। जिन पुरुषों में श्रद्धा नहीं है, उनके लिये भगवान् कहते हैं चौरासी लाख योनिमें भी मैं उसे नहीं चाहता। श्रद्धा करो भगवान् अपने-आप मिलेंगे, अगर श्रद्धा नहीं हो तो उसके लिये भगवान्से प्रार्थना करो।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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