गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
संन्यासीका जीवन
भजन, ध्यानसे पाप मिट सकते हैं, परन्तु ऋण नहीं मिट सकता। पापनाशके बहुत उपाय हैं। जप, ध्यान, तप जितने प्रकार से निष्काम कर्म हैं, निष्काम उपासना है, सबसे पापों का नाश होता है। ऋणवाला काम सीधा नहीं है। शास्त्र तो यहाँतक कहता है कि दान लेकर ऋण चुका दो। पापसे ऋण बड़ा है। पाप करनेवाला नरकमें जा सकता है, पर ऋण लेनेवालेको तो ऋण चुकाना है। राजा नृगने एक ही गाय दो बार दानमें दे दी, दोनों ब्राह्मणोंको समझाया पर वे नहीं माने, उस कारण राजाको गिरगिट बनना पड़ा। भूल थी, पर छूट नहीं हुई ताकि आगे लोग भूल न करें।
सब बात अनुभव करके देख ली कि कौन-सी बात बतानेमें लाभ है, कौन-सीमें नुकसान है। भुक्तभोगी हूँ, सब चाल चल ली। बहुत अनुभव कर लिया कि किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये। किसीकी कैसी ही चिट्ठी आ जाय, उसी तरह उत्तर दे दो। एक आदमीने पूछा ब्रह्मचर्यका पालन करूंगा, उसे लिख दिया, विवाह कर लो।
दो मार्ग हैं-स्वार्थ, आसक्ति, ममता त्यागकर कर्म करना तथा स्वार्थ, आसक्ति एवं ममता त्यागकर स्वरूपसे कर्मोंका त्याग कर देना, दोनों ही तरहसे मुक्ति है।
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टति न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुख बन्धात्प्रमुच्यते।।
(गीता ५।३)
हे अर्जुन! जो पुरुष न किसीसे द्वेष करता है और न किसीकी आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे रहित पुरुष सुखपूर्वक संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
द्वन्द्रोंसे रहित होकर चाहे जहाँ रहो। भीतरका त्याग ही मुक्ति देनेवाला है।
संन्यासी हर समय चित्तकी वृत्तियाँ उपराम रखे, दृष्टि नीची रखे। किसीसे कुछ सम्बन्ध नहीं रखे, इस तरह उपरामता रखे, हर समय वैराग्यकी रस्सीको खींचकर रखे। जैसे वर्तमानमें मांससे वैराग्य है भोगोंका नाम लेश भी नहीं रहे। बैठे हैं, सत्संग की बात चल रही है किसीने अडंग-बडंगकी बात चला दी, युद्धकी, विवाहकी कोई भी संसारकी बात पूछ ली, बस उत्तर नहीं दे, मौन रहे। या तो वह समझ जाय, अन्यथा नारायण! नारायण! कहकर चल दे। मील-दो-मील चला जाय। भीड़-भाड़ छट जाय, कोई दो-चार आदमी पीछे तक आ जायें तो बैठ जाय। सत्संगकी बात चल रही है, अच्छी या खराब दूसरेकी चर्चा सुने ही नहीं। वस्त्रोंका संग्रह भी न करे। एक अधोवस्त्र एवं एक उत्तरीय वस्त्र पर्याप्त है। वही ओढ़ना, वही बिछाना। किसीके यहाँ जाकर भोजन करना स्वीकार करे ही नहीं, कहींसे आ गया वही पा लिया। एक-एक टुकड़ा जहाँ-तहाँ मिल गया, पेट भर गया। पहलेसे कोई स्वीकार न करे, न शुद्धताकी आवश्यकता है, भोजन निर्मल चाहिये। कहीं अपवित्र (अखाद्य) मिल जाय तो त्याग कर दे। अन्न, जल जहाँ मिल जाय, जिस रूपमें मिल जाय, एक पात्र या कमण्डल रख ले और ज्यादा रखे तो एक गीताकी पुस्तक रख ले। हर समय मौन रहे। भजन, ध्यान करता रहे। सर्दी लगे तो तितिक्षा करे। इस श्लोकका पाठ करे -
मात्रास्पशस्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:।
अागमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
(गीता २।१४)
हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं; इसलिये हे भारत! उनको तू सहन कर।
एक भगवद्विषयक चर्चाके सिवाय दूसरी चर्चा करे ही नहीं। जिस स्थानका कोई स्वामी न हो वहाँ रह जाय। किसी चीजपर किसीका अधिकार हो उसे काममें नहीं लाये। कहीं कुटिया बनाये ही नहीं, कुटिया बनानेकी मनमें आ जाय तो श्मशानमें चला जाय। वह उसके लिये सबसे पवित्र है। वास श्मशानमें रखे। मुर्दा जलाने लायें, उस समय जंगल में चला जाय। कहीं कोई ऐसी झोपड़ी हो जिसका कोई स्वामी नहीं हो, उसमें रह जाय।
संन्यासीको किस तरह करना चाहिये, यह प्रश्न ही उठ जाय। जो कुछ कर रहा है सब करना उठ जाय, केवल शरीर-निर्वाह, भजन, ध्यान, उपरामता, वैराग्य एवं थोड़ा सत्संग करे। समयकी पाबन्दी टूट जाय, यह तो गृहस्थमें है। संस्था, मठ, कमेटी आदिका कुछ काम नहीं है। वह स्वयं जीता-जागता नियम है। उनके अनुसार जो रह सके वह उनके पास रहे। पाँच आदमी साथ हो गये तो बतानेकी आवश्यकता नहीं है, सोये हुए छोड़कर चल दे, वे ढूँढ़ते रहें, पता ही न लगे। कभी मिलना हो जाय, पूछे तो स्पष्ट बता दे।
प्रश्न-संन्यास लेनेकी स्थितिमें क्या लेख आदि लिखना होता है?
उत्तर-कुछ नहीं, गृहस्थाश्रमके साथ ही लेख आदि लिखना गया। सेवाका, उपकारका जो कुछ काम है सब बट्टे खाते गया।
नियमित रूपसे सत्संग नहीं होती, वहाँ तो हर समय सत्संग ही है। कोई गया तो घंटा-दो-घंटा कह दिया। कोई सुने, चाहे न सुने।
अमुक साधु आ गये, महात्मा आ गये, जैचे जहाँ बैठ जायें, अपनी तथा दूसरेकी मान, प्रतिष्ठा सब बट्टे खाते। फिर चाहे सीतामऊ महाराज आओ, चाहे बीकानेर महाराज कुछ मतलब नहीं है।
साथ वही रह सकता है जो शरीरको पहले ही बट्टे खाते लिख दे, क्योंकि न मालूम शरीर कहाँ पड़ जाय। किसीकी परवाह नहीं, अभी तो करपात्रीजी महाराज आ जायें तो लम्बा-लम्बा हाथ जोड़ते हैं, फिर मुँहसे भी बोलनेकी भी आवश्यकता नहीं है। शुकदेवजी, ऋषभदेवजीका उदाहरण देखो।
न किसीका तिरस्कार है, न किसीका मान है, न अपना मान है। कोई चीज आकर रख गया तो उठकर चल दिया, सम्बन्ध ही नहीं रखे, किसी नियममें बँधे ही नहीं, सारे नियम तोड़ दे। अपनेसे हो जाय सो हो जाय, कलका प्रोग्राम आज नहीं बनाये।
सत्संगका कोई नियत समय नहीं रखे। जैसे बीत जाय वही विधि है। कोई कहे तुम विरुद्ध कर रहे हो तो उत्तर ही नहीं दे।
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