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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के रहने के पाँच स्थान

भगवान के रहने के पाँच स्थान

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :43
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1083
आईएसबीएन :81-293-0426-0

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प्रस्तुत है भगवान के रहने का पाँच स्थान....

कोढ़ीने कहा-साध्वि! अभी-अभी इस मार्गसे एक परम सुन्दरी वेश्या जा रही थी। उसका शरीर सब ओरसे मनोरम था। उसे देखकर मेरा हृदय कामाग्निसे दग्ध हो रहा है। यदि तुम्हारी कृपासे मैं उस नवयौवनाको प्राप्त कर सकें तो मेरा जन्म सफल हो जायगा। देवि! तुम उसे मिलाकर मेरा हितसाधन करो।

पतिकी कही हुई बात सुनकर पतिव्रता बोली-‘प्रभो! इस समय धैर्य रखिये। मैं यथाशक्ति आपका कार्य सिद्ध करूंगी।'

यह कहकर पतिव्रताने मन-ही-मन कुछ विचार किया और रात्रिके अन्तिम भाग-उषःकालमें उठकर वह गोबर और झाड़ ले तुरन्त ही चल दी। जाते समय उसके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी। वेश्याके घर पहुँचकर उसने उसके आँगन और गलीमें झाड़ लगायी तथा गोबरसे लीप-पोतकर लोगोंकी दृष्टि पड़नेके भयसे वह शीघ्रतापूर्वक अपने घर लौट आयी। इस प्रकार लगातार तीन दिनोंतक पतिव्रताने वेश्याके घरमें झाड़ देने और लीपनेका काम किया। उधर वह वेश्या अपने दास-दासियोंसे पूछने लगी-आज आँगनकी इतनी बढ़िया सफाई किसने की है? सेवकोंने परस्पर विचार करके वेश्यासे कहा-‘भद्रे! घरकी सफाईका यह काम हमलोगोंने तो नहीं किया है।' यह सुनकर वेश्याको बड़ा विस्मय हुआ, उसने बहुत देरतक इसके विषयमें विचार किया और रात्रि बीतनेपर ज्यों ही वह उठी तो उसकी दृष्टि उस पतिव्रता ब्राह्मणीपर पड़ी। वह पुनः टहल बजानेके लिये आयी थी। उस परम साध्वी पतिव्रता ब्राह्मणीको देखकर ‘हाय! हाय!' आप यह क्या करती हैं, क्षमा कीजिये, रहने दीजिये।' यह कहती हुई वेश्याने उसके पैर पकड़ लिये और पुनः कहा-‘पतिव्रते! आप मेरी आयु, शरीर, सम्पत्ति, यश तथा कीर्ति- इन सबका विनाश करनेके लिये ऐसी चेष्टा कर रही हैं। साध्वि! आप जो-जो वस्तु माँगें, उसे निश्चय देंगी—यह बात मैं दृढ़ निश्चयके साथ कह रही हूँ। सुवर्ण, रत्न, मणि, वस्त्र और भी जिस किसी वस्तुकी आपके मनमें अभिलाषा हो, उसे माँगिये।'

तब पतिव्रताने उस वेश्यासे कहा-“मुझे धनकी आवश्यकता नहीं है, तुम्हींसे कुछ काम है; यदि करो तो उसे बताऊँ। उस कार्यकी सिद्धि होनेपर ही मेरे हृदयमें सन्तोष होगा और तभी मैं यह समझेंगी कि तुमने इस समय मेरा सारा मनोरथ पूर्ण कर दिया।'

वेश्या बोली-पतिव्रते! आप जल्दी बताइये। मैं सच-सच कहती हूँ, आपका अभीष्ट कार्य अवश्य करूंगी। माताजी! आप तुरन्त ही अपनी आवश्यकता बतायें और मेरी रक्षा करें।

पतिव्रताने लजाते-लजाते वह कार्य, जो उसके पतिको श्रेष्ठ एवं प्रिय जान पड़ता था, कह सुनाया। उसे सुनकर वेश्या एक क्षणतक अपने कर्तव्य और उसके पतिकी पीड़ापर कुछ विचार करती रही। दुर्गन्धयुक्त कोढ़ी मनुष्यके साथ संसर्ग करनेकी बात सोचकर उसके मनमें बड़ा दुःख हुआ। वह पतिव्रतासे इस प्रकार बोली-‘देवि! यदि आपके पति मेरे घरपर आयें तो मैं एक दिन उनकी इच्छा पूर्ण करूंगी।'

पतिव्रताने कहा-सुन्दरी! मैं आज ही रातमें अपने पतिको लेकर तुम्हारे घरमें आऊँगी और जब वे अपनी अभीष्ट वस्तुका उपभोग करके सन्तुष्ट हो जायँगे, तब पुनः उनको अपने घर ले जाऊँगी।

वेश्या बोली–महाभागे! अब शीघ्र ही अपने घरको पधारो, तुम्हारे पति आज आधी रातके समय मेरे महलमें आयें।

यह सुनकर वह पतिव्रता अपने घर चली आयी। वहाँ पहुँचकर उसने पतिसे निवेदन किया-‘प्रभो! आपका कार्य सफल हो गया। आज ही रातमें आपको उसके घर जाना है।'

कोढ़ी ब्राह्मण बोला-देवि! मैं कैसे उसके घर जाऊँगा, मुझसे तो चला नहीं जाता। फिर कैसे वह कार्य सिद्ध होगा?

पतिव्रता बोली-प्राणनाथ! मैं आपको अपनी पीठपर बैठाकर उसके घर पहुँचाऊँगी और आपका मनोरथ सिद्ध हो जाने पर फिर उसी मार्गसे लौटा ले आऊँगी।

ब्राह्मणने कहा-कल्याणी! तुम्हारे करनेसे ही मेरा कार्य सिद्ध होगा। इस समय तुमने जो काम किया है, वह दूसरी स्त्रियोंके लिये दुष्कर है।

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    अनुक्रम

  1. अमूल्य वचन
  2. भगवानके रहनेके पाँच स्थान : पाँच महायज्ञ
  3. पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान
  4. तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा
  5. गीता माहात्म्य

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