गीता प्रेस, गोरखपुर >> धर्म से लाभ और अधर्म से हानि धर्म से लाभ और अधर्म से हानिजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है धर्म से लाभ और अधर्म से हानि....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सम्पादक का निवेदन
यह ‘तत्त्व-चिन्तामणि’ का तीसरा भाग है। लेखक के अनुभव
पूर्ण विचारों से पाठकों को बहुत लाभ पहुँचता देखकर इस तीसरे भाग के जीवन
के असली उद्देश्य का ज्ञान कराकर विषयों के अन्धकार भरे गहन जंगल में
भटकते हुए मनुष्यों को भगवान की प्रकाशमयी सुन्दर राह पर चढ़ाने वाले,
आसुरी सम्पदाका विनाश कर दैवी सम्पदाको बढ़ानेवाले सदाचार और सद्विचारो
में प्रवृति करानेवाले, भ्रम-संदेहों का नाश करके और भगवान के दिव्य गुण,
रहस्य प्रभाव और प्रेम को प्रकट करके श्रीभगवान के पावक चरणों में प्रीति
प्राप्त कराने वाले तथा दुर्लभ भगवत्त्वका सहज ही ज्ञान कराने वाले सरल
भाषा में लिखे हुए सिन्दर और सुपाठ्य सब लोगों के लिये कल्याणकारी,
शास्त्रसम्मत और अनुभवयुक्त विचारों से पूर्ण लेखों का ही संग्रह किया गया
है। लेखक और लेखों में व्यक्त किये हुए विचारों की बड़ाई में विशेष कुछ
कहना तो उनका तिरस्कार ही करना है।
पाठक-पाठिकाओ से करबद्ध प्रार्थना है कि वे मन लगाकर इन पुस्तकों को पढ़े, समझें और समझकर तदनुसार जीवन बनाने की श्रद्धा तथा प्रयत्नपूर्वक चेष्टा करें। यदि ऐसा किया गया तो मेरा विश्वास है कि उन्हें कुछ दिनों में प्रत्यक्ष लाभ दिखाई देगा और अपने जीवन में एक विलश्रण शान्ति और आनन्द का स्रोत उमड़ता देखकर वे चकित हो जायँगे।
पाठक-पाठिकाओ से करबद्ध प्रार्थना है कि वे मन लगाकर इन पुस्तकों को पढ़े, समझें और समझकर तदनुसार जीवन बनाने की श्रद्धा तथा प्रयत्नपूर्वक चेष्टा करें। यदि ऐसा किया गया तो मेरा विश्वास है कि उन्हें कुछ दिनों में प्रत्यक्ष लाभ दिखाई देगा और अपने जीवन में एक विलश्रण शान्ति और आनन्द का स्रोत उमड़ता देखकर वे चकित हो जायँगे।
विनीत
हनुमानप्रसाद पोद्दार
(कल्याण-.सम्पादक )
हनुमानप्रसाद पोद्दार
(कल्याण-.सम्पादक )
नोट – स० 2048 से तत्त्व चिन्ता मणि भाग -3- दो खण्डों में
प्रकाशित
की गयी है- प्रथम खण्ड का नाम धर्म से लाभ अधर्म से हानि द्वितीय खण्ड का
नाम ‘अमूल्य शिक्षा’ है।
श्री परमात्मनेनामः
मनुष्य का मन प्रायः हर समय सांसारिक पदार्थों का चिन्तन करके अपने समय को
व्यर्थ नष्ट करता है किन्तु मनुष्य जन्म का समय बड़ा ही अमूल्य है इसलिये
अपने समय को एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट न करके श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भगवान
के नाम रूप का निष्काम भाव से नित्य, निरन्तर स्मरण करना चाहिये इसलिय समय
उससे बढ़कर आत्मा के लिये दूसरा और कोई भी साधन नहीं है।
एवं दुखी, अनाथ, आतुर तथा अन्य सम्पूर्ण प्राणियों को साक्षात् परमात्मा समझकर उनकी मन, तन, धन द्वारा मन दृष्टि से संयम पूर्वक निष्काम भाव से तत्परता और उत्साह के साथ सेवा करने से भी मनुष्य का शीघ्र कल्याण हो सकता हैं।
अतएव मनुष्य को हर समय भगवान के समय भगवान के नाम और रूप रूप को याद रखते हुए ही निष्काम भाव से शास्त्र निहित कर्म तत्परता के साथ करने की चेष्टा करनी चाहिये।
एवं दुखी, अनाथ, आतुर तथा अन्य सम्पूर्ण प्राणियों को साक्षात् परमात्मा समझकर उनकी मन, तन, धन द्वारा मन दृष्टि से संयम पूर्वक निष्काम भाव से तत्परता और उत्साह के साथ सेवा करने से भी मनुष्य का शीघ्र कल्याण हो सकता हैं।
अतएव मनुष्य को हर समय भगवान के समय भगवान के नाम और रूप रूप को याद रखते हुए ही निष्काम भाव से शास्त्र निहित कर्म तत्परता के साथ करने की चेष्टा करनी चाहिये।
निवेदक
ॐ
विनय
तत्त्व-चिन्तामणि का यह तीसरा भाग भी समय-समय पर
‘कल्याण’ मासिक पत्र में निकले हुए लेखों का संशोधित
संग्रह है।
मैं न तो कोई विद्वान हूँ न अपने को उपदेश, आदेश और शिक्षा देने का अधिकारी ही समझता हूं। तथापि आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से स्त्री बालक और शास्त्रनभिज्ञ मनुष्यों में उच्चश्रृंखलता और नास्तिकता बढ़ रही है, उसके प्रभाव से प्राचीन ऋषि महात्माओं के महत्त्व को जानने के कारण लोग उनकी निन्दा कर रहे है और अपनी जाति धर्म और सदाचार का परित्याग कर इस नास्तिकता की आँधी में पड़कर दयामय परमात्मा के गुण, प्रभाव और रहस्यों को न जानने के कारण धर्म और ईश्वर की अवहेलना कर रहे हैं, यह देखकर सदाचार और ईश्वर भक्ति पर कुछ लिखने का प्रयास किया गया है।
इस पुस्तक के पढ़ने से यदि किसी भी पाठक के चित्त में सद्गुण, सदाचार एवं ईश्वर भक्तिका किञ्चित भी संचार होगा तो मैं अपने परिश्रम को सफल समझूँगा। प्रेमी पाठकों से मेरा सविनय निवेदन है कि वे कृपा करके इस पुस्तक को मन लगाकर पढ़े और जो-जो बातें आपकों अच्छी मामूल दे उन्हें यथाशक्ति काम में लाने की चेष्टा करें। जो-जो त्रुटियाँ उनके ध्यान में आवें उनके लिये मुझे क्षमा करते हुए बतलाने की कृपा करें।
मैं न तो कोई विद्वान हूँ न अपने को उपदेश, आदेश और शिक्षा देने का अधिकारी ही समझता हूं। तथापि आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से स्त्री बालक और शास्त्रनभिज्ञ मनुष्यों में उच्चश्रृंखलता और नास्तिकता बढ़ रही है, उसके प्रभाव से प्राचीन ऋषि महात्माओं के महत्त्व को जानने के कारण लोग उनकी निन्दा कर रहे है और अपनी जाति धर्म और सदाचार का परित्याग कर इस नास्तिकता की आँधी में पड़कर दयामय परमात्मा के गुण, प्रभाव और रहस्यों को न जानने के कारण धर्म और ईश्वर की अवहेलना कर रहे हैं, यह देखकर सदाचार और ईश्वर भक्ति पर कुछ लिखने का प्रयास किया गया है।
इस पुस्तक के पढ़ने से यदि किसी भी पाठक के चित्त में सद्गुण, सदाचार एवं ईश्वर भक्तिका किञ्चित भी संचार होगा तो मैं अपने परिश्रम को सफल समझूँगा। प्रेमी पाठकों से मेरा सविनय निवेदन है कि वे कृपा करके इस पुस्तक को मन लगाकर पढ़े और जो-जो बातें आपकों अच्छी मामूल दे उन्हें यथाशक्ति काम में लाने की चेष्टा करें। जो-जो त्रुटियाँ उनके ध्यान में आवें उनके लिये मुझे क्षमा करते हुए बतलाने की कृपा करें।
विनीत
जयदयाल गोयन्दका
जयदयाल गोयन्दका
धर्म से लाभ और अधर्म से हानि
युग के प्रभाव और जड़ भोगमयी सभ्यता के विस्तार से आज जगत में धर्म के
सम्बन्धों में बड़ी ही कुरुचि हो रही है। जहाँ प्राणों को
न्योछावर
करके भी धर्म का पालन कर्तव्य समझा जाता था, वहाँ आज धर्म को ही
प्राणविघातक शत्रु मानकर उसके विनाश की चेष्टा हो रही है, धर्म क्या वस्तु
है ? इसको जानने का प्रयास कुछ भी न कर उलटे धर्म का नाम-निशान मिटाने में
ही बहादुरी समझी जाती है और आवेश में आये हुए धर्मज्ञानशून्य मनुष्य
उच्छृख्ङलतारूप स्वतन्त्रता के उन्माद से ग्रस्त होकर ईश्वर और धर्म का
अस्तित्व नाश करने पर तुले हुए हैं और डंके की चोट ईश्वर और धर्म को
अपराधी ठहराकर पुकार रहे हैं कि ‘इस धर्म और ईश्वर ने ही जगत्
का
सत्यानाश कर दिया धर्म और ईश्वर के कारण ही संसार में गरीबों और दुर्बलों
पर अत्याचार हुए और हो रहे हैं। धर्म और ईश्वर की गुलामी ने मनुष्य को
गुलाम बनाने का आदी बना दिया और इस धर्म और ईश्वर की मान्यताओं से ही
भोले-भाले लोग लूटे जा रहे हैं।’
इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वार्थी, कामभोगलोलुप, दाम्भिक, पाखण्डी लोगों ने कामिनी, काञ्चन और मान- बढ़ाई की कामना से काम क्रोध और लोभ के वश होकर धर्म के नाम पर अनाचार किये और कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि ईश्वर पूजक कहलाने वाले पुजारी और याजकों में भी अनेकों पाखण्डी दुराचारियों ने लोगों की कमी नहीं है। मान, बढ़ाई प्रतिष्ठा और धन के मद में अन्धे हुए स्वार्थ परायण धर्मज्ञान रहित विषय लोलुप मनुष्य अवश्य ही बेचारे गरीब, दुखी किसान मजदूर ग्रमीण भोले-भाले लोगों से पशुओ की भाँति काम लेते हैं, उनपर अत्याचार करते है और उनका हक मारते है; परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह धर्म और ईश्वर दोष है या इसलिये धर्म और ईश्वर को नहीं मानना चाहिये। बल्कि यू कहना चाहिये कि लोगों में धर्म बुद्धि और ईश्वर में आस्था न रहने से यह पाखण्ड और अनाचार फैला। यदि वास्तव में लोगों की धर्म में प्रवृत्ति और सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, न्यायकारी, दयालु ईश्वर की सत्ता में विश्वास होता है तो इस प्रकार का अनाचार कदापि नहीं फैलता। अनाचार अत्याचार पाखण्ड और गरीबों के उत्पीड़न में यह धर्म का ह्रास ही प्रधान कारण है।
आज तीर्थों में जो काम और लोभ के वश में हुए दाम्भिक पुरुष किसी प्रकार से प्रविष्ट होकर श्रद्धावान यात्रियों की श्रद्धा से अनुचित लाभ उठा रहे है अथवा आज जो कामना भोग परायण नीच वृत्ति के मनुष्य भक्ति के उत्तम चिन्हो को धारणकर धन और स्त्रियों के सतीत्व का हरण कर रहे है वे अवश्य ही महान अपराधी है धर्म के स्थानों को दूषित करने वालें। कामलोभ वश जनता को ठगने वाले अपने कुकर्मों और दुराचारों से धर्मात्मा साधु सन्त और भक्तों के नाम पर कलंक लगाने वाले नरपिशाचों की जितनी निन्दा की जाय थोड़ी है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वार्थी, कामभोगलोलुप, दाम्भिक, पाखण्डी लोगों ने कामिनी, काञ्चन और मान- बढ़ाई की कामना से काम क्रोध और लोभ के वश होकर धर्म के नाम पर अनाचार किये और कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि ईश्वर पूजक कहलाने वाले पुजारी और याजकों में भी अनेकों पाखण्डी दुराचारियों ने लोगों की कमी नहीं है। मान, बढ़ाई प्रतिष्ठा और धन के मद में अन्धे हुए स्वार्थ परायण धर्मज्ञान रहित विषय लोलुप मनुष्य अवश्य ही बेचारे गरीब, दुखी किसान मजदूर ग्रमीण भोले-भाले लोगों से पशुओ की भाँति काम लेते हैं, उनपर अत्याचार करते है और उनका हक मारते है; परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह धर्म और ईश्वर दोष है या इसलिये धर्म और ईश्वर को नहीं मानना चाहिये। बल्कि यू कहना चाहिये कि लोगों में धर्म बुद्धि और ईश्वर में आस्था न रहने से यह पाखण्ड और अनाचार फैला। यदि वास्तव में लोगों की धर्म में प्रवृत्ति और सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, न्यायकारी, दयालु ईश्वर की सत्ता में विश्वास होता है तो इस प्रकार का अनाचार कदापि नहीं फैलता। अनाचार अत्याचार पाखण्ड और गरीबों के उत्पीड़न में यह धर्म का ह्रास ही प्रधान कारण है।
आज तीर्थों में जो काम और लोभ के वश में हुए दाम्भिक पुरुष किसी प्रकार से प्रविष्ट होकर श्रद्धावान यात्रियों की श्रद्धा से अनुचित लाभ उठा रहे है अथवा आज जो कामना भोग परायण नीच वृत्ति के मनुष्य भक्ति के उत्तम चिन्हो को धारणकर धन और स्त्रियों के सतीत्व का हरण कर रहे है वे अवश्य ही महान अपराधी है धर्म के स्थानों को दूषित करने वालें। कामलोभ वश जनता को ठगने वाले अपने कुकर्मों और दुराचारों से धर्मात्मा साधु सन्त और भक्तों के नाम पर कलंक लगाने वाले नरपिशाचों की जितनी निन्दा की जाय थोड़ी है।
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