भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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तुम्हारे हृदय की बात
मैं नहीं जानती।
किन्तु
हे निर्दय!
तेरे ही प्रेम-पाश में बंधकर
मैं तड़प रही हूं
दिन रात।
राजा : (सहसा आगे बढ़कर-)
तुम्हें तो कामदेव सता ही रहा है, पूर मुझे तो वह निरन्तर जलाए ही डाल रहा
है। क्योंकि दिन निकलने पर कुमुदिनी उतना नहीं कुम्हलाती जितना कि
चंद्रमा क्षीण हो जाता है।
सखियां : (हर्षपूर्वक) आपका स्वागत है। हम अभी आपके विषय में यही सोच रही
थीं, हमारा मनोरथ तुरन्त ही पूर्ण हो गया है।
[शकुन्तला उठना चाहती है।]
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