भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : बस, बस हो गया-
[विरह ताप से तप्तं होकर फूलों के बिछौने पर जब तुमने इधर-उधर करवट ली है
उससे पसीने के साथ फूलों की पंखुडियां तुम्हारे शरीट से चिपट गई हैं। कमल
की नाल के जो आभूषण तुमने धारण किये हुए हैं वे ताप से मुरझा गए
हैं। इससे यह स्पष्ट आभास मिलता है कि तुम्हारा शरीर अभी भी बहुत
विकल है और तुम इस योग्य नहीं हो पाई हो कि उठकर किसी का आदर-सत्कार
कर सको।]
अनसूया : (राजा से) वयस्क! आप भी शिलापट्ट के एक कोने को ही सुशोभित
कीजिए, अन्य कोई उपयुक्त स्थान यहां तो है भी नहीं।
[राजा वहां बैठ जाता है। शकुन्तला सकुचाती है।]
प्रियंवदा : यह बात तो अब स्पष्ट हो गई है कि आप दोनों परस्पर प्रेम करते
हैं। किन्तु अपनी सखी के प्रति अत्यन्त स्नेह के नाते मैं आपसे कुछ
कहना चाहती हूं।
राजा : भद्रे! आप अपने मन की बात कह डालिए, इसे रोकना उचित नहीं है। यदि
मन में आई बात को न कहा जाये तो बाद में पछताना पड़ता है।
प्रियंवदा : आप यहां के महाराज हैं। अत: आपका यह धर्म है कि राजा होने के
नाते आप अपनी प्रजा के कष्टों को दूर करें।
राजा : किन्तु मैंने कब इसका प्रतिवाद किया है?
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