भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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प्रियंवदा : तो महाराज सुनिए! आपके ही कारण भगवान कामदेव ने हमारी सखी की
यह दशा कर दी है। अब आप ही यदि कृपा करें तो
उसके प्राण बच सकते हैं।
राजा : मैं आप लोगों का अनुगृहीत हूं। वास्तव में मेरी भी वैसी ही दशा हो
रही है।
शकुन्तला : (प्रियंवदा को देखकर) सखी! ये राजा तो अपने निवास में रहने
वाली रानियों के विरह में व्याकुल हो रहे होंगे। तुम इन्हें इस फेर में
क्यों डाल रही हो।
राजा : सुन्दरि!
मेरा हृदय तुम्हें छोड़कर अन्य किसी को प्यार नहीं करता। फिर भी हे मदभरी
चितवन वाली! मेरे हृदय की रानी! एक यदि तुम मेरी बात का विश्वास नहीं
करतीं तो मैं यही समझूंगा कि कामदेव के बाण से बार घायल हुए मुझको तुम
दुबारा से घायल कर राही हो।
अनसूया : महाराज! सुनते हैं कि राजा तो अनेक रानियों से प्रेम प्रकट किया
करते हैं। इसलिए हमारी प्रिय सखी के लिए तो कुछ इस प्रकार का प्रबन्ध
कीजिए कि जिससे उसके हम सगे-सम्बन्धियों को बाद में किसी प्रकार का
पश्चात्ताप न करना पड़े।
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