भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[नेपथ्य में]
चक्रवाक वधू! अपने सहचर को बुला ले। रात होने वाली है।
शकुन्तला : (घबराकर) पुरुराज! जान पड़ता है कि मेरे शरीर की दशा जानने के
लिए आर्या गौतमी स्वयं इधर ही आ रही हैं। इसलिए आप उस वृक्ष की ओट
में हो जाइए।
राजा : अच्छा। (यह कहकर छिप जाता है।)
[उसके बाद हाथ में एक पात्र लिये हुए गौतमी और दोनों सखियों का प्रवेश।]
सखियां : आर्या गौतमी! इधर आइये। इधर को आइये।
गौतमी : (शकुन्तला के सनीप पहुंचकर।) वत्से! क्या तुम्हारे अंगों का संताप
अब कुछ कम हुआ?
शकुन्तला : आर्ये! हां, अब कुछ कम है।
गौतमी : (शकुन्तला के सिर पर कुशा का जल छिड़ककर फिर कहती है-) लो, इस
कुशोदक से अब तुम्हारा शरीर स्वस्थ हो जायेगा। वत्से! उठो, चलो, अब दिन ढल
गया है। आओ, अब कुटिया में चलते हैं।
[सब जाते हैं।]
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