भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
|
|
शकुन्तला : (जाते हुए मन-ही-मन) अरे मन! जब तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करने के
लिए तुम्हारा प्रिय तुम्हारे समीप था तब तो तुम अपनी कातरता छोड़ नहीं
पाये। अब पछताते हुए बिछुड़ जाने पर क्यों इतना संताप कर रहे हो? (कुछ पग
चलकर फिर खड़ी होती है और प्रकट में कहती है) हे सन्ताप हरने वाले लतापुंज!
मैं तुम्हें फिर निमन्त्रण दिये जाती हूं।
[इस प्रकार दुःख के साथ शकुन्तला का अपनी सखियों के साथ प्रस्थान।]
राजा : (पहले स्थान पर आकर, नि:श्वास छोड़ता हुआ) अहो! मन की कामना पूर्ण
होने में बाधायें-ही-बाधायें हैं।
क्योंकि-
अपने जिस ओठ को शकुन्तला बार-बार अपनी अंगुली से ढकती जा रही थी, जो
बार-बार 'नहीं' कहती हुई बड़ी सुन्दर लग रही थी, अपने जिस मुख को वह कन्धे
की ओर मोड़ती जा रही थी, उस सुन्दर पलकों वाली शकुन्तला के मुख को
उठाकर मैं चुम्बन
भी नहीं कर पाया।
अब कहां जाऊं? जहां मेरी प्यारी कुछ देर रहकर गई है, मैं भी थोड़ी देर इसी
लता कुंज में ठहर जाता हूं।
[सब और देखकर]
उसके शरीर से मसला हुआ यह फूलों का बिछौना इस पत्थर की शिला पर पड़ा हुआ
है। कमलिनी के पत्ते पर नखों से लिखा हुआ उसका यह प्रेम-पत्र भी यहीं पड़ा
हुआ है। कमलनाल के आभूषण ताप से सूखकर उसके हाथों से गिरकर यहीं पड़े हैं।
अपने नेत्रों की उलझाने वाली उसकी इतनी वस्तुओं के होते हुए इन सबको छोड़
शीघ्र कहीं चले जाने को मेरा मन भी तो नहीं कर पा रहा है।
|