भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[नेपथ्य में]
राजन्!
सायंकाल के यज्ञ-कर्म के आरम्भ होते ही, जलती हुई अग्नि वाली यज्ञ वेदियों
के चारों ओर सांझ के बादलों के समान काले-काले और लाल-लाल डरावने राक्षस
इधर-उधर घूमते दिखाई दे रहे हैं।
राजा : मैं आता हूं।
[निकल जाता है।]
चतुर्थ अंक
[फूलों का चयन करने का अभिनय करती हुई दोनों सखियों का दृश्य]
अनसूया : प्रियंवदा! वह तो बड़ी सन्तोष और सुख की बात हुई कि शकुन्तला का
गान्धर्व रीति से विवाह हो गया है और उसके योग्य पति भी प्राप्त हो गया
है। किन्तु मेरे लिए यही बड़ी चिन्ता है...
प्रियंवदा : (बात बीच में ही रोककर पूछने लगती है) क्या बड़ी चिन्ता है
तुम्हें?
अनसूया : यही कि आज यज्ञ की समाप्ति के उपरान्त जब ऋषियों और हम सबसे विदा
लेकर ये राजा अपनी राजधानी में पहुंच जायेंगे और वहां पहुंचकर रनिवास की
रानियों में रम जायेंगे तब वहां रमने के उपरान्त भी इन्हें इस तपोवन की
सुध रह जायेगी क्या?
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