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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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प्रियंवदा : ऐसा तो नहीं लगता कि वे यह सब भूल जायेंगे। क्योंकि जिस प्रकार के आचरण  वाले राजा दुष्यन्त हमें दिखे, उस प्रकार के लोग कपटी वृत्ति के नहीं हो सकते।
किन्तु मुझे तो दूसरी ही चिन्ता लग रही है?

अनसूया : वह क्या?

प्रियंवदा : जब हमारे कुलपति महर्षि कण्व आश्रम में लौटकर आयेंगे और ये सब बातें सुनेंगे  तो वे पता नहीं क्या समझेंगे अथवा क्या करेंगे, यही मेरी चिन्ता का विषय है।

अनसूया : जहां तक मेरा अनुभव कहता है, वह यही है कि वे इसका समर्थन ही करेंगे।

प्रियंवदा : यह कैसे कहती हो तुम?

अनसूया : क्योंकि उनका तो संकल्प ही यही था कि इसके योग्य कोई वर मिल जायेगा तो वे इसका उसके साथ विवाह कर देंगे। जब यह कार्य भगवान ने स्वयं ही पूरा कर दिया है तो उनका तो बिना प्रयास के ही मनचाहा काम हो गया है।

प्रियंवदा : (फूलों की टोकरी देखकर) सखि! मैं समझती हूं कि बलि कर्म
के लिए तो हमने पर्याप्त फूलों का चयन कर लिया है।

अनसूया : हां, बलि कर्म के लिए तो इतने फूल पर्याप्त थे। किन्तु आज हमें अपनी प्रिय सखी शकुन्तला के सौभाग्य देवता की भी तो पूजा करनी है, उसके लिए भी पर्याप्त फूलों की आवश्यकता होगी।

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