भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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प्रियंवदा : अरे, हां! तुम ठीक कहती हो। (यह कहकर वह फिर फूल चुनने लग
जाती है।)
[नेपथ्य में]
अरे मैं आया हुआ हूं।
अनसूया : (कान लगाकर सुनने का अभिनय करती हुई।) यह तो किसी अतिथि की-सी ही
बोली लगती है।
प्रियंवदा : तो क्या हुआ? शकुन्तला तो आज कुटिया में ही है। (फिर मन-ही-मन
कहती है) किन्तु आज वह कुछ अनमनी-सी हो रही है।
अनसूया : चलो, अब चलें, इतने फूलों से पूजा-अर्चना का कार्य सम्पन्न हो
जायेगा।
[दोनों का प्रस्थान]
[नेपथ्य में]
अरी! ओ अतिथि का अपमान करने वाली-
जिसके ध्यान में मग्न होकर तू मुझ जैसे तपस्वी के आने की भी सुधि नहीं ले
रही है वह बहुत स्मरण दिलाने पर भी तुझे उसी प्रकार भूल जायेगा जिस प्रकार
पागल मनुष्य अपनी पिछली बातों को भूल जाया करते हैं।
[दृश्य परिवर्तन]
प्रियंवदा : हाय, हाय! यह तो बहुत बुरा हो गया। लगता है कि अपनी बेसुधी की
अवस्था में शकुन्तला ने किसी पूजनीय महापुरुष का अपराध कर दिया है।
[सामने देखकर]
वह भी ऐरे-गैरे या ऐसे-वैसे मनुष्य का नहीं, अपितु यह तो तनिक-सी बात पर
क्रुद्ध होने वाले महर्षि दुर्वासा ही हैं जो हमारी प्रिय सखी को शाप देकर
क्रोध से कांपते हुए पैरों से बड़े वेग से आश्रम से लौटे जा रहे हैं।
भला आग को छोड़कर जलाने का काम और कौन करेगा?
अनसूया : प्रियंवदा! तुम जाओ और उनके पैरों को पड़कर किसी प्रकार उनको
वापस बुला लाओ। तब तक मैं अर्ध्य का जल लेकर आती हूं।
प्रियंवदा : अच्छा, मैं जाती हूं।
[जाती है।]
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