भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[दृश्य परिवर्तन]
प्रियंवदा : (देखकर) अनसूया! देखो तो बायें हाथ पर अपने बायें गाल को
टिकाये हुए हमारी सखी किस प्रकार चित्र लिखी-सी बैठी दिखाई
दे रही है। जब पति की चिन्ता में यह अपनी ही सुध-बुध खो बैठी है तो फिर
अतिथि की बात कैसे सोच सकती थी?
अनसूया : प्रियंवदा! यह बात केवल हम दोनों तक ही सीमित रहनी चाहिए।
शकुन्तला बड़ी ही कोमल प्रकृति की है, उसकी रक्षा तो हमको किसी-न-किसी
प्रकार करनी ही होगी। इसको इस बात का ज्ञान नहीं होना चाहिए।
प्रियंवदा : हां, हां, यह तो है ही। लहलहाती हुई नव-मल्लिका की लता को वह
कौन मूर्ख होगा जो उसको गरम पानी से सींचेगा?
[दोनों का प्रस्थान]
[पर्दा गिरता है।]
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