लोगों की राय

भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

Like this Hindi book 0


[दृश्य परिवर्तन]
[सोकर उठे हुए एक शिष्य का प्रवेश]

शिष्य : अभी बाहर से लौटे हुए हमारे, पूज्य महर्षि कण्व ने मुझे यह देखने के लिए कहा है कि अभी रात कितनी शेष रह गई है। तो बाहर प्रकाश में जाकर देखता हूं कि रात अब  कितनी अवशिष्ट रह गई है।

[इधर-उधर घूमकर और आकाश की ओर देखकर]

अरे, यह तो प्रभात होने लगा है।
क्योंकि-
एक ओर तो औषधियों के पति चन्द्रमा अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहे हैं तो दूसरी ओर  अपने सारथी अरुण को आगे किये हुए सूर्यदेव प्रकट हो रहे हैं। इन दो तेजस्वियों के एक साथ उदय और अस्त को देखकर संसार को यही शिक्षा मिलती है कि लोक अपनी दशा से ही  नियमित होता है। अर्थात् दुःख के उपरान्त सुख और सुख के उपरान्त दुःख आता रहता है।
और भी-
चन्द्रमा जब अस्त हो गया है तो अब कुमुदिनी की शोभा भी जाती रही, वह अब आंखों को  नहीं भाती। उसकी शोभा केवल कल्पना में ही रह गई है। सचमुच ही जिन वनिताओं के पति  परदेश चले गये होते है, उनका वियोग-दुःख तो निश्चित ही बड़ा दुस्सह होता होगा।

[झटके से परदा उठता है।]
[अनसूया का प्रवेश]

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book