भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : ठीक है, अब समतल भूमि आ गई है। घोड़ों की रास ढीली छोड़ दो, जिससे वे
अपनी गति से दौड़ सकें।
सारथी : जैसी आयुष्मान की आज्ञा! (रास ढीली करता है, रथ का वेग देखकर)
आयुष्मन्! देखिए-देखिए-
[घोड़ों की गति दिखाकर]
मेरे रास ढीली करते ही ये घोड़े अपने आगे का शरीर फैलाकर और माथे की चामर
सीधी खड़ी करके, इतने वेग से दौड़ रहे हैं कि इनकी टापों से उठी धूल
भी इनको नहीं छू पा रही है। ऐसा जान पड़ता है कि ये घोड़े हरिण के ताथ दौड़
में होड़ कर रहे हों।
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