भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[आश्चर्य करता हुआ, इधर-उधर देखकर]
हम तो इस हिरण के पीछे-पीछे ही चले आ रहे हैं, फिर भी यह हिरण हमारी आंखों
से कैसे और किधर को ओझल हो गया है?
सारथी : आयुष्मन्! यह भूमि बड़ी ऊबड़-खाबड़ है, रथ ठीक से नहीं चल पा रहा था,
इस कारण मैंने घोड़ों की रास खींचकर उनकी गति मध्यम कर दी थी, मृग
अपनी गति से दौड़ता हुआ हमसे दूर निकल गया है, इसलिए वह हमारी आंखों
से ओझल हो गया
है। किन्तु आगे की भूमि समतल दिखाई देती है, वहां रथ की गति तीव्र हो
जाएगी और तब आप मृग को हाथ में आया ही समझिए।
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