भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[सारथि के साथ रथ पर बैठे धनुष-बाण धारण किये हुए, मृग का पीछा करते हुए
राजा दुष्यन्त प्रविष्ट होते हैं।]
सारथी : (राजा और मृग को देखकर) आयुष्मान! इस काले सुन्दर मृग पर अपनी
दृष्टि गड़ाए, और धनुष को प्रत्यंचा पर चढ़ाए हुये इस समय आप ऐसे दिखाई दे
रहे हैं मानो साक्षात् पिनाकी मृग का पीछा कर रहे हों।
दुष्यन्त : सूत! यह हरिण तो हमें बहुत दूर तक खींचकर ले आया है। और अभी
फिर भी बार-बार पीछे मुड़कर इस रथ को एकटक देखते हुए यह सुन्दर लगने वाला
हरिण मेरा बाण लगने के डर से अपने पिछले आधे शरीर को सिकोड़कर आगे
के भाग से मिलाता हुआ, देखो, कैसा दौड़ता ही चला जा रहा है।
दौड़ते-दौड़ते थक गया है, इस कारण उसके मुख से आधी चबाई हुई कुशा के
तिनके मार्ग में गिरते जा रहे हैं। डर के कारण यह ऐसी लम्बी-लम्बी
छलांगें भर रहा है कि इसके पांव धरती पर पड़ते से दिखाई ही नहीं देते। ऐसा
लग रहा है कि मानो यह आकाश में दौड़ता चला जा रहा हो।
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