भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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हे, हे राजन्! यह आश्रम का मृग है, इसे नहीं मारना चाहिए, रुकिए, इसे
मारिए नहीं।
सारथी : (आवाज सुनकर इधर-उधर देखकर) आयुष्मान्! आप जिस काले हरिण पर बाण
ताने हुए हैं उसके बीच में तपस्वी आ गए हैं।
राजा : (घबराकर) तो घोड़ों को रोक लो।
सारथी : ऐसा ही करता हूं। (इस प्रकार रथ को रोक लेता है।)
[उसके बाद दो शिष्यों के साथ वैखानस प्रविष्ट होता है]
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