भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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वैखानस : (हाथ उठाकर) राजन्! यह आश्रम का मृग है। इसको नहीं मारना चाहिए,
आश्रम के जीव-जन्तु अवध्य होते हैं-इस पर कभी भी, जी हां, कभी भी, बाण
चलाकर इसको मारना नहीं चाहिए। मृग का शरीर इतना कोमल होता है कि उसके लिए
आपका बाण ठीक वैसा ही भयंकर है जैसे कि रुई के गद्दे के लिए अग्नि। बताइए,
कहां तो हरिणों के कोमल प्राण और कहां आपके ये वज्र के समान कठोर और तीखे
बाण।
इसलिए आपने यह जो बाण तानकर चढ़ाया हुआ है इसे उतार लीजिए। आपके शस्त्र तो
पीड़ितों की रक्षा के लिए होने चाहिए, निरपराध और निरीहों को मारने के लिए
नहीं।
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