भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : (आगे बढ़कर स्वयं ही) यह तो आश्रम का द्वार जान पड़ता है। इसी से
भीतर प्रविष्ट होता हूं।
[राजा द्वार से प्रविष्ट होता है। उसे अच्छे शकुन दिखाई देते हैं।]
सारथी : (उन शुभ शकुनों को देखकर मन-ही-मन) इस शान्त तपोवन की भूमि में
मेरी दाहिनी भुजा क्यों फड़क रही है? यहां इस आश्रम में भला मुझ राजा को
क्या मिलने वाला है? पर कहा तो यही जाता है कि जो होनी होती है, वह
तो कहीं पर भी हो सकती है। उसके द्वार कहीं भी अवरुद्ध नहीं होते सब कहीं
वह हो सकती है।
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