भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[नेपथ्य में]
सखियो! इधर आओ, इधर आओ।
[राजा ध्यान से सुनता है।]
राजा : (स्वयं ही) फुलवारी के दाहिने ओर किसी की बातचीत जैसी सुनाई पड़ती
है। इधर ही चलना चाहिए। (घूमकर देखता हुआ) आ हा! ये तपस्वियों की कन्यायें
अपने अनुरूप घड़े लेकर छोटे-छोटे पादपों
को पानी देने के लिए इधर ही आ रही हैं। (ध्यान से देखकर) ओ हो। इनका दर्शन
तो बड़ा ही मधुर है।
क्योंकि-
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