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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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[जैसे विदूषक ने कहा था, उस प्रकार की सेविकाओं के साथ राजा का प्रवेश।]

 राजा : यद्यपि प्यारी शकुन्तला का मिलना है तो बड़ा कठिन, पर उसकी भावाभिव्यक्ति से मन को आश्वासन-सा मिल ही रहा है। हम दोनों का मिलन भले ही न होने पाये, किन्तु इतना सन्तोष तो है कि मिलने का चाव दोनों ओर एक समान है।
(मुस्कुराकर) जो प्रेमी अपनी प्रियतमा के मन को अपने मन से परखता है, वह इसी प्रकार धोखा खाता है।
और देखो-
जब वह बड़े प्यार से किसी अन्य की ओर भी आंखें घुमाती थी तब मैं यही समझता था कि उसने अपनी प्रिय चितवन मेरी ओर ही डाली है। नितम्बों के भारी होने के कारण जब वह मन्द-मन्द चलती थी तब मैं समझता था कि वह मुझे ही अपनी चटक-मटक भरी चाल द्रिखा रही है।
जब उसको सखियों ने उस समय जाने से किसी बहाने से रोका, उस समय वह अपनी सखियों पर जिस प्रकार से कुद्ध-सी हुई, तब भी मैंने यही समझा कि यह सब मेरे प्रति प्रेम के कारण ही हो रहा है।
अहो! कामी पुरुष को सब बातें अपने ही मन की दिखाई पड़ती हैं।

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