भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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विदूषक : (उसी लुंज-पुंज मुद्रा में खड़ा हुआ) मेरे हाथ-पैर तो खुल नहीं
रहे हैं, इसलिए मैं केवल मुख से आपकी जय-जयकार करता हूं।
[आपकी जय हो, जय हो।]
राजा : तुम्हारा यह अंग-भंग किस प्रकार हो गया?
विदूषक : कैसे क्या? स्वयं आंखों में उंगुली डालकर पूछ रहे हैं कि यह आंसू
किस प्रकार निकल पड़े?
राजा : तुम क्या कह रहे हो, मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूं। साफ-साफ बताओ
न क्या बात है?
विदूषक : हे मेरे मित्र! अच्छा अब आप यह तो बताइए कि नदी में जो बेंत की
लता कुबडी-सी बनी रहती है, वह अपने मन से वैसी रहती है या कि नदी के वेग
के कारण उसको वैसा बनना पड़ता है?
राजा : उसको तो नदी के वेग के कारण ही वैसे बनना पड़ जाता है।
विदूषक : तो फिर मेरे इस अंग-भंग का कारण भी आप ही हैं।
राजा : वह कैसे?
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