भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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विदूषक : अरे चल, चल यहां से, बड़ा आया उत्साह दिलाने वाला। देख नहीं रहा
है कि हमारे महाराज फिर मनुष्य बन गए हैं। तुझे इसी प्रकार इस वन से उस वन
में भटक-भटककर आखेट करते हुए कभी-न-कभी मनुष्य की नाक के लोभी किसी बड़े
भालू के मुंह में पड़ना ही है।
राजा : भद्र सेनापति! देखो, हम लोग इस समय तपोवन के पास ठहरे हुए हैं।
इसलिए इस समय तुम्हारी यह आखेट के लिए जाने वाली बात मुझे कुछ जंचती नहीं
है।
आज तो-
भैसों को छोड़ दो, जिससे कि वे अपने सींगों से पानी को हिलोरते हुए तालाबों
में तैरें। हरिणों के झुण्ड पेड़ों की छाया में घेरा बनाकर बैठे जुगाली
करें। बड़े-बड़े सूउर निडर होकर छिछले तालाबों में नागरमोथे की जड़ें खोदें
और मेरे धनुष की ढीली डोरी भी कुछ देर विश्राम कर ले।
सेनापति : महाराज जैसा उचित समझे।
राजा : जिन हांका लगाने वालों को आगे भेज दिया है उन्हें वापस आने के लिए
कह दो और अपने सभी सैनिकों को भली प्रकार समझा दो कि वे कोई ऐसा काम न कर
बैठें जिससे कि तपोवन के कार्य में किसी प्रकार की बाधा अपरिचत हो जाये।
देखो-
सूर्यकान्तमणि यों तो छूने में ठंडी लगती है पर जब सूर्य उस पर अपना
प्रकाश डालता है तब वह भी अग आने लगती है। उसी प्रकार ऋषि लोग द्यपि
बड़े शान्त होते हैं पर उनमें इतना तेज भी होता है कि यदि कोई उन्हें कष्ट
दे तो उसे जलाकर भरम कर देते हैं।
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