भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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विदूषक : (आप ही आप) अच्छा, तो यह बात है। मैं इस बात को यहीं काटे देता
हूं। (प्रकट) अच्छा मित्र! ऐसा जान पड़ता है कि आप उस तापस कन्या पर मुग्ध
हो गए हैं।
राजा : मित्र! पुरुवंशियों का मन कुपथ की ओर तो बढ़ ही नहीं सकता।
सुना है-
उसकी माता कोई अप्सरा थी। वह जब इसे जन्म देकर वन में ही इसको छोड़कर चली
गई तो मुनि कण्व इसको उठाकर ले आये। यह तो ठीक उसी प्रकार हुआ मानो कि
नवमल्लिका का फूल अपनी डाली से टूटकर मंदार पर आ गिरा हो।
विदूषक : (हंसकर) जिस प्रकार कोई मीठा छुहारा खाते-खाते ऊबकर इमली पर टूट
पड़े उसी प्रकार आप भी रनिवास की एक-से-एक बढ़कर सुन्दरियों को भुलाकर इस पर
लट्टू हो गए हैं।
राजा : तुमने अभी तक उसको एक बार भी नहीं देखा है, इसीलिए ऐसा कह रहे हो।
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