भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
|
|
विदूषक : आपने यह अच्छा ही किया जो यहां से सब मक्खियों को भगा दिया है।
अब यहां से चलिए। चलकर वृक्षों की घनी छाया वाले लता मण्डप के नीचे सुन्दर
आसन पर आप भी चलकर बैठिए। मैं भी कुछ थकान मिटाता हूं। शरीर सारा शिथिल हो
रहा है।
राजा : चलो, तुम आगे-आगे चलो।
विदूषक : मैं चल रहा हूं, आप भी आइए।
[दोनों घूमकर बैठ जाते हैं।]
राजा : माढव्य! यदि तुमने इस संसार में देखने योग्य वस्तुओं को न देखा तो
फिर तुम्हारी इन आंखों का तुम्हें क्या लाभ है?
विदूषक : आप तो सदा मेरी आंखों के आगे रहते ही हैं न?
राजा : अपने आप को तो सभी सुन्दर ही समझते हैं। किन्तु मैं तो इस आश्रम की
शोभा शकुन्तला के विषय में बात कर रहा हूं।
|