भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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दोनों ऋषि० : (राजा के समीप जाकर) राजन्! आपकी जय हो।
राजा : (आसन से उठकर) आप दोनों को मैं प्रणाम करता हूं।
दोनों : आपका कल्याण हो, (आशीर्वाद देकर राजा को फल भेंट करते हैं।)
राजा : (प्रणाम करके फल लेकर) आज्ञा कीजिए।
दोनों : सब आश्रमवासी यह जान गये हैं कि श्रीमान यहां निवास किये हुए हैं।
उन्होंने आपसे प्रार्थना की है...
राजा : (बीच में ही बात काटकर) उनकी क्या आज्ञा है?
दोनों : हमारे कुलपति आदरणीय महर्षि कण्व के आजकल आश्रम में न होने से
राक्षसगण हमारे यज्ञ में बड़ा विघ्न डाल रहे हैं। अत: आपसे प्रार्थना है कि
आप कुछ रात्रि अपने सारथी आदि के साथ इस आश्रम में रहकर इसको सनाथ
करने की कृपा कीजिए।
राजा : मैं अनुगृहीत हुआ।
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