भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
|
|
विदूषक : (किसी को न सुनाता हुआ) उनकी अभ्यर्थना तो इस समय आपके अनुकूल ही
है। यही तो आप चाह रहे थे।
राजा : (मुस्कुराकर) रैवतक! सारथी से मेरी ओर से कहो कि धनुष-बाण सहित रथ
को इधर लेता आते।
दौवारिक : जैसी महाराज की आज्ञा।
[जाता है।]
दोनों ऋषि० : (हर्ष व्यक्त करते हुए) आप वही युक्तियुक्त कार्य कर रहे हैं
जो आपके पूर्वज करते आये हैं। आश्रम की रक्षा करना तो आपका
धर्म ही है। यह बात सभी भली-भांति जानते हैं कि शरण में आये हुए को अभयदान
देने में पुरुवंशी कभी पीछे नहीं हटते।
राजा : (प्रणाम करके) आप लोग आगे चलिए, मैं भी आप लोगों का अनुगमन करने
वाला हूं।
दोनों : (आशीर्वाद देते हुए) आपकी विजय हो।
[दोनों जाते हैं।]
|