भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : माढव्य! क्या शकुन्तला के दर्शन करने की कुछ इच्छा है?
माढव्य : पहले जब आपने कहा था तब तो इतनी तीव्र इच्छा थी कि मानो बाढ़ ही आ
गई हो। किन्तु अब जब राक्षसों के उपद्रव की बात सुनी है तो वह इच्छा
अब बूंद भर भी नहीं रह गई है।
राजा : अरे, डरते क्यों हो? तुमको हम अपने समीप ही रखेंगे।
विदूषक : हां, तब तो राक्षसों से मैं सुरशित हो गया हूं।
[द्वारपाल का प्रवेश]
दौवारिक : महाराज! रथ तैयार है। आपकी विजययात्रा के लिए चलने की प्रतीक्षा
कर रहा है।
और हां, राजमाता की आज्ञा लेकर नगर से करभक भी आया है, महाराज!
राजा : (माता के प्रति आदर व्यक्त करते हुए) क्या महामाता जी ने करभक को
भेजा है?
दौवारिक : जी हां।
राजा : तब तो उसको अभी यहीं ले आओ।
[दौवारिक जाता है और करभक के साथ प्रविष्ट होता है।]
दौवारिक : (करभक से) ये बैठे हैं महाराज, आगे बढ़ो।
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