भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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करभक : महाराज की जय हो। माताजी ने कहलाया है कि आज से चौथे दिन मेरे व्रत
का पारायण होगा। उस अवसर पर उनके चिरंजीव को अवश्य वहां उपस्थित रहना
चाहिए।
राजा : इधर तो तपस्वियों का कार्य और उधर गुरुजनों की आज्ञा। दोनों ही
नहीं टाले जा सकते। क्या किया जाये?
विदूषक : त्रिशंकु की भांति बीच में लटक जाओ।
राजा : सचमुच में ही मैं तो द्विविधा में फंस गया हूं-
दोनों कार्य दो विभिन्न स्थानों में आ पड़े हैं। इसलिए द्विविधा में मेरे
मन की इस समय वही दशा हो रही है जो पहाड़ से रुकी हुई नदी की धारा की हो
जाती है। (कुछ सोचकर) मित्र! देखो,
माताजी तुम्हें भी पुत्र के समान ही मानती हैं। इसलिए तुम तो नगर को जाओ
और माताजी को बता देना कि मैं इस समय ऋषियों की रक्षा में लगा हुआ हूं।
वहां पुत्र के करने का जो भी कार्य हो, उसको तुम कर देना।
विदूषक : आप मुझे राक्षसों से डरने वाला मत समझिए।
राजा : (मुस्कुराकर) भला, तुम्हारे विषय में कभी ऐसा सोचा भी जा सकता है?
विदूषक : तब तो मैं ठीक उसी प्रकार जाऊंगा, जिस प्रकार कि राजा के छोटे
भाई को जाना चाहिए।
राजा : हां, ठीक है। जहां तक हो, तपोवन से यह सब बखेड़ा दूर ही रहना चाहिए,
इसलिए इस सारी सेना को भी मैं तुम्हारे साथ ही वापस नगर को भेज रहा हूं।
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