भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
|
|
[जाता है।]
[परदा गिरता है]
[काम से अनावस्था वाले राजा का प्रवेश]
राजा : (चिन्तित-सा सांसे भरता हुआ) तपस्वियों की शक्ति को मैं भली प्रकार
जानता हूं। इसीलिए मैं अपनी प्रिया को हरकर भी तो नहीं ले जा सकता और यह
भी जानता हूं कि विवाह करना अथवा न करना उस कुमारी के वश की बात
नहीं है। वह परवश है, इस कारण वह स्वयं भी मेरे साथ नहीं जा सकती। फिर भी
न जाने क्या बात है कि मैं अपना मन उस पर से हटा ही नहीं पा रहा हूं।
[काम-पीड़ा का-सा अनुभव करते हुए।]
हे पुष्पों के शस्त्र धारण करने वाले कामदेव भगवान्! आपने चन्द्रमा की
सहायता से उन सब कामियों के साथ बड़ा विश्वासघात किया है जो आप पर विश्वास
किये हुए थे।
क्योंकि-
तुम्हारा फूलों के बाण वाला कहा जाना और चन्द्रमा का ठण्डी किरणों वाला
कहा जाना, ये दोनों ही बातें मुझ सरीखे विरहियों को सब झूठी-सी जान पड़ती
हैं। क्योंकि मुझे तो ऐसा लग रहा है कि चन्द्र अपनी ठण्डी किरणों से आग
बरसा रहा है और तुमने भी अपने पुष्प-शरों में वज्र की कठोरता को भर लिया
है।
अथवा-
यदि तुम मदभरी और बड़ी-बड़ी आंखों वाली शकुन्तला के कारण मेरे चित्त को
बार-बार दुखाने का उपक्रम कर रहे हो तुम ठीक ही कर रहे हो, मैं इसको ऐसा
ही समझता हूं।
|