भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[खेद से परिक्रमा करके]
यज्ञ पूर्ण हो जाने पर जब ये ऋषि लोग मुझे विदा कर देंगे तब मैं अपने ये
दुःखी प्राण लेकर अपना मन कहां बहलाऊंगा? तब तक तो उसको ही खोजता हूं।
[ठण्डी सांस भरकर]
प्रिया के दर्शन के अतिरिक्त अब मेरे लिए अन्य आश्रय ही क्या रह गया है।
चलता हूं, उसको ढूंढ़ता हूं।
[सूर्य को देखकर]
ऐसी भरी दुपहरी में शकुन्तला अपनी सखियों के साथ मालिनी के तट पर बने लता
मण्डपों में ही जाकर प्राय: बैठा करती है। तो चलो, वहीं चलकर देखता हूं।
(घूमकर और वायु के स्पर्श का-सा अभिनय करता हुआ)
वाह! यहां कैसा सुन्दर पवन बह रहा है।
कमल की सुगन्ध में बसा हुआ और मालिनी की लहरों की फुहारों से लदा हुआ यह
पवन, काम से तप्त इन अंगों को बड़ा ही सुहावना लग रहा है।
[घूमकर और देखकर]
बंतों से घिरे इस लता मण्डप में ही कहीं शकुन्तला को बैठी होना चाहिए।
क्योंकि (नीचे देखकर)-
इस कुंज के द्वार पर पीली रेती में भारी नितम्ब वाली सखियों के पैरों के
नये-नये पड़े हुए ये चिह्न-से दिखाई दे रहे हैं जो एड़ी की ओर से गहरे और
आगे की ओर उठे हुए हैं। अच्छा, इन पेड़ों की ओट से देखता हूं।
[घूमकर और प्रसन्न होकर]
वाह! मेरी आंखें ठण्डी हो गई हैं। यह मेरी प्रिया यहां सुन्दर फूलों के
बिछौनों वाली पत्थर की पटिया पर लेटी हुई है और उसकी दोनों सखियां उसकी
सेवा में लगी हुई हैं। अच्छा, सुनूं तो सही कि ये सब परस्पर किस प्रकार की
बातें कर रही हैं?
[खड़ा होकर सुनता है]
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