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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

केदारदत्त जोशी

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11248
आईएसबीएन :8120823540

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2.6 केन्द्राधिपति या मारकेश होने का दोष


(1) केन्द्राधिपत्यदोषस्तु बलवान गुरु शुक्र योः।
मारकत्वे अपि च तयोर मारक स्थान संस्थितिः।।10।।


गुरु व शुक्र नैसर्गिक शुभ ग्रह होने से, केन्द्र भाव के स्वामी होने पर, दोषमुक्त या शुभ फल देने में असमर्थ हो जाते हैं। • यदि गुरु अथवा शुक्र सप्तमेश हों तो इन्हें मारकत्व भी प्राप्त होता है। ध्यान रहे, यदि गुरु अथवा शुक्र सप्तमेश होकर सप्तम भाव में स्वगृही हों तो प्रबल मारक बन जाते हैं।

टिप्पणी- गुरु व शुक्र बिना किसी शर्त (Condition) के निर्विवाद रूप से शुभ ग्रह हैं। इनका केन्द्राधिपति होना इनकी शुभता नष्ट करता है। दो प्रबल शुभ ग्रहों की शुभता नष्ट होना ही केन्द्राधिपति दोष है। अतः गुरु शुक्र को केन्द्रेश होने का दोष सर्वाधिक होता है।

पुनः द्वितीय व सप्तम भाव में सप्तम स्थान को प्रबल मारक माना जाता है। अब यदि मारकेशं मारक स्थान में स्वक्षेत्री होने से बली हो तो प्रबल मारक सिद्ध होगा, इसमें भला सन्देह कैसा?

(2) बुधस्तदनु चन्द्रौऽपि भवेत् तदनु तदुविधः
ने रंधेशत्व दोषस्तु सूर्या चन्द्रसोर् भवेत्।।11।।



गुरु और शुक्र की तुलना में बुध को केन्द्रधिपत्ये दोष कम लगता है और सबसे कम दोष चन्द्रमा को लगता है। यदि बुध अथवा चन्द्रमा सप्तमेश हों तो निश्चय ही ये गुरु व शुक्र की तुलना में कम मारक होते हैं।
(3) भले ही अष्टमेश प्रबल पापी होते हों किन्तु यदि सूर्य व चन्द्रमा की राशि अष्टम स्थान में हो तो इन्हें अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी
  2. अपनी बात

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