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लघुपाराशरी एवं मध्यपाराशरी

केदारदत्त जोशी

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11248
आईएसबीएन :8120823540

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2.5 अष्टमेश का विशेष नियम


भाग्य व्ययाधिपत्येन धेशो न शुभप्रदः।
सेः एव शुभसंधाता लग्नाधीशोऽपिचेत् स्वयम्।।9।।


(1) भाग्य स्थान का व्ययेश होने के कारण, अष्टमेश बहुधा शुभ फल नहीं देता। किन्तु यदि ऐसा अष्टमेश लग्नेश भी हो, तो निश्चय ही शुभ फल भी दिया करता है।
टिप्पणी-व्यय भाव अशुभता, कष्ट व हानि का संकेतक है। यदि षष्ठ भाव सप्तम का व्यय स्थान होने से पली के लिए हानिकारक व अशुभ है तो अष्टम भाव भाग्य को हानि स्थान होने से भाग्य की हानि दर्शाएगा। .
(2) अनेक विद्वानों ने त्रिषडायेश व केन्द्रेश से भी अधिक पापी अष्टमेश को माना है। अष्टमेश भाग्य हानि या दैन्य-दुर्भाग्य का प्रतिनिधि होकर, मृत्यु का स्वामी है। अतः इसे सर्वाधिक पापी कहा जाता है।
(3) अब यदि स्वयं लग्नेश ही अष्टमेश हो जाए तो अष्टमेश का पापत्व नष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिए, मेष लग्न जातक का अष्टमेश मंगल, लग्नेश भी है। अतः मंगल अंशुभ फल नहीं देगा।
(4) इसी प्रकार तुला लग्न जातक को अष्टमेश शुक्र, लग्नेश भी होने के कारण, अष्टमेश का अशुभ फल नहीं देगा।
(5) ध्यान रहे, लग्न केन्द्र व त्रिकोण भाव है अतः लग्नेश स्वाभाविक रूप से सर्वाधिक बली व शुभ होता है। लग्नेश में वह शक्ति है जो बड़े से बड़े अशुभ फल का नाश कर सकती है।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी
  2. अपनी बात

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