वास्तु एवं ज्योतिष >> लघुपाराशरी भाष्य लघुपाराशरी भाष्यरामचन्द्र कपूर
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5.11 गुरु-सूर्य में स्थायी नौकरी
विश्लेषण
(i) पंचमेश मंगल की सप्तमेश (केन्द्रेश) शनि के साथ पंचम भाव में युति है।
(ii) लाभेश-सुखेश शुक्र, लग्नेश से भाग्य स्थान में भाग्येश गुरु तथा दशमेश मंगल से दृष्ट है।
(iii) दशानाथ गुरु भाग्येश होकर दशम या कर्म भाव को देख रहा है।
(iv) भुक्तिनाथ सूर्य दशानाथ का नियन्त्रक होकर, लग्न में गुरु की उच्च राशि को देख रही है।
(V) दशमेश से युति करने वाले शनि की दशानाथ गुरु और भुक्तिनाथ सूर्य पर दृष्टि होने से जातक ने गुरु की दशा व सूर्य की भुक्ति में स्थायी नौकरी प्राप्त की।
5.12 राहु-केतु का दशा-भुक्ति फल
तमोग्रहौ शुभारूढी वा सम्बन्धेन केनचित्
अन्तर्दशानुसारेण भवेतां योगकारकौ।।36।।
राहु-केतु यदि शुभ स्थान में अर्थात् केन्द्र या त्रिकोण भाव में हों तब वे निश्चय ही अपनी दशा व अन्तर्दशा में योगकारक बनते हैं। राहु-केतु का यदि शुभ भावेश से सम्बन्ध न भी हो तब भी वे शुभ भाव में बैठने भर से, शुभ फल देने वाले बन जाते हैं।
टिप्पणी-
राहु-केतु जिस भाव में बैठे उस भावेश के गुण अपने में आत्मसात कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, दशमस्थ राहु से दशमेश की दशा में राहु की भुक्ति कार्य क्षेत्र में सफलता देगी।
शुभारूढौ का अर्थ है-शुभ स्थान में आरूढ़ होना।
शुभारूढौ शुभस्थानम् आरूढौ लग्न त्रिकोणगौ (पं. विनायक शास्त्री)
अर्थात् शुभ आरूढ़ या शुभ स्थान में बैठने का अर्थ है-राहु-केतु का, लग्न, पंचम या नवम भाव में स्थित होना।
अन्य विद्वानों ने केन्द्र व त्रिकोण, दोनों को ही शुभ स्थान माना है। त्रिकोण भाव तो निर्विवाद रूप से शुभ हैं किन्तु केन्द्रस्थ राहु-केतु के लिए कुछ विद्वान त्रिकोणेश या अन्य शुभ ग्रह का सम्बन्ध आवश्यक मानते हैं। पीछे श्लोक 13 में महर्षि ने स्पष्ट कहा है कि तमोग्रह राहु-केतु जिस भाव में बैठे अथवा जिस भावेश से सम्बन्ध करें, उन्हीं भावों का फल दिया करते हैं।
वहाँ :-
(i) लग्न, पंचम, नवम भाव में शुभ
(ii) केन्द्र, धन और व्यय भाव में सम।
(iii) तृतीय, षष्ठ, एकादश अर्थात त्रिषडाय में अशुभ किन्तु
(iv) अष्टम भाव में इसे अति पापी माना जाता है।
असम्बन्धेन या असम्बन्धी होने पर भी शुभ परिणाम देंगे। सामान्य नियम है कि केन्द्र व त्रिकोणपति का सम्बन्ध राजयोग देता है। किन्तु केन्द्रस्थ तमोग्रह त्रिकोणेश सम्बन्ध न करे तब भी योगकारक है। इसी प्रकार त्रिकोण भाव में स्थित राहु-केतु का केन्द्रेश से सम्बन्ध न भी हो तब भी वे शुभ व योगकारक होते हैं। शायद यही राहु-केतु का विशेष नियम है।
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