गीता प्रेस, गोरखपुर >> ध्यान और मानसिक पूजा ध्यान और मानसिक पूजाजयदयाल गोयन्दका
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ध्यान और मानसिक पूजा....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ध्यान और मानसिक पूजा
साकार और निराकार दोनों ही की उपासनाओं में ध्यान सबसे आवश्यक और
महत्त्वपूर्ण साधन है। श्रीभगवान् ने गीता में ध्यान की बड़ी महिमा गायी
है। जहाँ कहीं उनका उच्चतम उपदेश है, वहीं उन्होंने मन को अपने में (भगवान
में) प्रवेश करा देने के लिये अर्जुन के प्रति आज्ञा की है। योगशास्त्रमें
तो ध्यानका स्थान बहुत ऊँचा है ही। ध्यानके प्रकार बहुत-से हैं। साधक को
अपनी रुचि, भावना और अधिकार के अनुसार तथा अभ्यास की सुगमता देखकर किसी भी
एक स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। यह स्मरण रखना चाहिये कि निर्गुण-निराकार
और सगुण-साकार भगवान् वास्तव में एक ही हैं।
एक ही परमात्मा के अनेक दिव्य प्रकाशमय स्वरूप हैं हम उनमें से किसी भी एक स्वरूप का आश्रय लेकर परमात्मा को पा सकते हैं; क्योंकि वास्तव में परमात्मा उससे अभिन्न ही हैं। भगवान् के परम भाव को समझकर किसी भी प्रकार से उनका ध्यान किया जाय, अन्त में प्राप्ति उन एक ही भगवान् की होगी, जो सर्वथा अचिन्त्यशक्ति, अचिन्त्यानन्त-गुणसम्पन्न, अनन्तदयामय, अनन्तमहिम, सर्वव्यापी, सृष्टिकर्ता सर्वरूप, स्वप्रकाश, सर्वात्मा, सर्वद्रष्टा, सर्वोपरि, सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, सर्वसुहृय, अज, अविनाशी, अकर्ता, देशकालातीत, सर्वातीत, गुणातीत, रूपातीत, अचिन्त्यस्वरूप और नित्य स्वमहिमा में ही प्रतिष्ठित, सदसद्विलक्षण एकमात् परम और चरम सत्य हैं। अतएव साधकको इधर-उधर न भटकाकर अपने इष्टरूप में महान् आदर-बुद्धि परखते हुए परम भाव से उसी के ध्यानका अभ्यास करना चाहिये।
श्रीमद्भागवद्गीता के छठे अध्याय के ग्यारहवें से तेरहवें श्लोकतक के वर्णन के अनुसार एकान्त, पवित्र और सात्तविक स्थान में सिद्ध स्वस्तिक, पद्मासन या अन्य किसी सुख –साध्य आसन से बैठकर नींद का डर न हो तो आँखे मूँदकर, नहीं तो आँखों को भगवान् की मूर्ति पर लगाकर अथवा आँखों की दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर जमाकर प्रतिदिन कम-से-कम तीन घंटे, दो घंटे या एक घंटे—जितना भी समय मिल सके—सावधानी के साथ लय, विक्षेप, कषाय, रसास्वाद, आलस्य, प्रमाद, दम्भ आदि दोषों से बचकर श्रद्धा—भक्तिपूर्वक तत्परता के साथ ध्यानका अभ्यास करना चाहिए। ध्यान के समय शरीर, मस्तक और गला सीधा रहे और रीढ़ की हड्डी भी सीधी रहनी चाहिये। ध्यानके लिये समय और स्थान भी सुनिश्चित ही होना चाहिये
एक ही परमात्मा के अनेक दिव्य प्रकाशमय स्वरूप हैं हम उनमें से किसी भी एक स्वरूप का आश्रय लेकर परमात्मा को पा सकते हैं; क्योंकि वास्तव में परमात्मा उससे अभिन्न ही हैं। भगवान् के परम भाव को समझकर किसी भी प्रकार से उनका ध्यान किया जाय, अन्त में प्राप्ति उन एक ही भगवान् की होगी, जो सर्वथा अचिन्त्यशक्ति, अचिन्त्यानन्त-गुणसम्पन्न, अनन्तदयामय, अनन्तमहिम, सर्वव्यापी, सृष्टिकर्ता सर्वरूप, स्वप्रकाश, सर्वात्मा, सर्वद्रष्टा, सर्वोपरि, सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, सर्वसुहृय, अज, अविनाशी, अकर्ता, देशकालातीत, सर्वातीत, गुणातीत, रूपातीत, अचिन्त्यस्वरूप और नित्य स्वमहिमा में ही प्रतिष्ठित, सदसद्विलक्षण एकमात् परम और चरम सत्य हैं। अतएव साधकको इधर-उधर न भटकाकर अपने इष्टरूप में महान् आदर-बुद्धि परखते हुए परम भाव से उसी के ध्यानका अभ्यास करना चाहिये।
श्रीमद्भागवद्गीता के छठे अध्याय के ग्यारहवें से तेरहवें श्लोकतक के वर्णन के अनुसार एकान्त, पवित्र और सात्तविक स्थान में सिद्ध स्वस्तिक, पद्मासन या अन्य किसी सुख –साध्य आसन से बैठकर नींद का डर न हो तो आँखे मूँदकर, नहीं तो आँखों को भगवान् की मूर्ति पर लगाकर अथवा आँखों की दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर जमाकर प्रतिदिन कम-से-कम तीन घंटे, दो घंटे या एक घंटे—जितना भी समय मिल सके—सावधानी के साथ लय, विक्षेप, कषाय, रसास्वाद, आलस्य, प्रमाद, दम्भ आदि दोषों से बचकर श्रद्धा—भक्तिपूर्वक तत्परता के साथ ध्यानका अभ्यास करना चाहिए। ध्यान के समय शरीर, मस्तक और गला सीधा रहे और रीढ़ की हड्डी भी सीधी रहनी चाहिये। ध्यानके लिये समय और स्थान भी सुनिश्चित ही होना चाहिये
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