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गीता प्रेस, गोरखपुर >> अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति

अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1184
आईएसबीएन :81-293-0572-0

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प्रस्तुत है अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति....

Apatra Ko Bhi Bhagvad Prapti a hindi book by Jaidayal Goyandaka - अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

‘अपात्र को भी भगवत्प्राप्ति’ जीवन्मुक्त तत्त्वज्ञ भगवत्प्रेमी ब्रह्मलीन परमश्रद्धेय श्री जयदयालजी गोयन्दका के बारह प्रवचनों का संग्रह है, जिनमें ग्यारह प्रवचन कैसटों से लिये गये हैं। श्रद्धालुओं के निरन्तर आग्रह के बाद भी आज तक उनके प्रकाशन का सुयोग नहीं बन पाया था। भगवान् की कृपा से वह सुयोग अब बन पाया। प्रेमी पाठकों के हाथों यह पुस्तक समर्पित करते हुए हमें अपार अनुभव हो रहा है।

पुस्तक में प्रमुख प्रतिपाद्य विषय आत्म-कल्याण और भगवत्प्राप्ति है। पूरी पुस्तक में भक्ति का स्वर सर्वाधिक मुखर है। ज्ञान-चर्चा भी भक्ति का रंग लिये हुए है। भक्ति का यह रथ श्रद्धा और विश्वास के चक्रों पर चला है। अजामिल-जैसे अपात्रका भी उद्धार हुआ, यह पुस्तक के नाम करण की सार्थक पीठिका है। ‘नियमों के पालन से कल्याण’ शीर्षक लेख में आरुणि और उपमन्यु के उपाख्यानों द्वारा श्रद्धा और विश्वास का महत्त्व बड़े सशक्त रूप से प्रतिपादित किया गया है। ‘प्रमाद ही मृत्यु है’ शीर्षक लेख में सनत्सुजात के सूत्रात्मक उपदेश की विस्तृति व्याख्या है और हमारे दैनिक आचरण से संबंधित प्रमादों (जिन्हें परमश्रद्धेय गोयन्दकाजी ने चोरी की संज्ञा दी है)-के विविध आयामों का विवेचन है।
आशा है, भगवत्प्रेमी पाठकों को इस पुस्तक से एक नयी दिशा मिलेगी।

प्रकाशक

।। श्रीहरि: ।।

अपात्रको भी भगवत्प्राप्ति
‘‘उदारा: सर्व एवैते’’ का रहस्य-अपात्रको भी भगवत्प्राप्ति


‘उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।’

(गीता 7/18)

ये सभी भक्त उद्धार हैं, परन्तु ज्ञानी तो मेरी आत्मा ही है। मेरा स्वरूप ही है। सभी उद्धार हैं’ इसका भाव निम्न श्लोकों में स्पष्ट किया गया है-

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।

(गीता 7/16)

‘हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! चार प्रकार के सुकृती अर्थात् उत्तम कर्म करनेवाले मेरे भक्त मुझे भेजते हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। इन चारों में अर्थ की कामना वाले यानी स्त्री, पुत्र, धन, रुपये, शरीर, ऐश्वर्य, राज्य-इनकी जो हृदय में कामना करते हैं वे अर्थार्थी हैं। अर्थार्थी से श्रेष्ठ है आर्त, जैसे-द्रौपदी।

जिसे काम करने के समय में तो काम करना न हो यानी काम करते समय कोई इच्छा न हो पर संकट (आपत्ति)-के समय अपनी माँग पेश कर दे वह आर्त है और जिज्ञासु वह है जो भारी-से-भारी सांसारिक आपत्ति प्राप्त हो जाय तो भी उसके लिये भगवान् से प्रार्थना न करे, एकमात्र भगवान् को जानने की और उनकी शीघ्र प्राप्ति की इच्छा करे। जिसे एक ही जिज्ञासा रहे कि परमात्मा की प्राप्ति जल्दी कैसे हो। अपनी आत्मा के उद्धार की अर्थात् भगवान् के दर्शनों की ही जिन्हें जिज्ञासा है, ऐसे पुरुषों में न तो संसार की कामना रहती है न संकट-निवृत्ति की याचना, चाहे कितना ही संकट आये। किन्तु आत्मा-विषय की, परमात्म-विषयकी जिज्ञासा है कि परमात्मा क्या चीज है ? उसकी प्राप्ति कैसे हो ?

 और चौथा निष्कामी ज्ञानी, जिसे कोई भी कामना नहीं, मुक्ति की भी कामना नहीं। ‘कोई भी कामना नहीं करूँगा तो भी भगवान् की प्राप्ति मुझे हो ही जायगी यह भी कामना नहीं है। नहीं करूँगा तो भी मेरी आत्मा का उद्धार हो जायगा’ यह भी कामना नहीं करता, तात्पर्य यह है कि निष्कामी ज्ञानी कोई भी कामना नहीं करता। ऐसी बात या तो सिद्ध पुरुषों में होती या सिद्ध होने के लायक पुरुषों में होती है। इन चारों प्रकार के भक्तों में जो सबसे बढ़कर भक्त है वह मेरा आत्मा ही है।
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
सभी प्रकार के भक्त उदार हैं, किन्तु ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है। अठारहवें और उन्नीसवें श्लोकों में तथा इसके पहले सत्रहवें भी दिखायी-

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:।।

इन चारों प्रकार के अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी भक्तों में मुझ एक परमात्मा में भक्ति करने वाला जो मेरा अनन्य प्रेम ज्ञानी भक्त है, वह श्रेष्ठ है। ज्ञानी को मैं अतिशय प्यारा हूँ, मेरे सिवा और कहीं किंचिनमात्र भी उसकी प्रीति नहीं है। यदि मुक्ति में भी प्रीति रहती हो तो वह जिज्ञासु ही होता। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु- इन तीनों से भी ज्ञानी बढ़कर है। उसे मैं अतिशय प्यारा हूँ। भक्ति (भेदोपासना)-में मैं ज्ञानी को अतिशय प्यारा हूँ वह ज्ञानी मुझे अतिशय प्यारा है। जो एक-दूसरे को अतिशय प्रिय है, उसे भगवान् इस श्लोक में दिखा रहे हैं। दोनों की एकता नहीं दिखा रहे हैं। यह दिखा रहे हैं कि यह तो मुझे अतिशय प्यारा है और मैं अतिशय प्रिय हूँ। ‘वह मुझे’ और ‘मैं उसे’-इस भेदोपासना के भावों को यह श्लोक प्रकट कर रहा है। वे कहते हैं कि वह अतिशय प्यारा है तो क्या सब प्यारे नहीं ? ‘उदारा: सर्व एवैते’ परन्तु ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।’ ज्ञानी तो मेरा आत्मा ही है-मेरा स्वरूप ही है।

इस आधे श्लोक में यह बात कही कि चारों भक्त ही उदार हैं, किन्तु उनमें ज्ञानी मेरा आत्मा ही है। उदार सभी हैं, यानी श्रेष्ठ सभी हैं। सभी मुझे प्यारे हैं और सबको मैं प्यारा हूँ। इनकी श्रेष्ठता के साथ-साथ उदारता का यह भाव है कि वे उदार चित्तवाले हैं, जैसे किसी मनुष्य का चित्त बड़ा हो और अपना स्वत्व, अपनी शरीर, समय, अधिकार की वस्तु आदि दूसरों के प्रति अर्पण करने में वह बड़ा उदार है। ऐसे वे सब उदार चित्तवाले अपने स्वत्व को मेरे प्रति समर्पण कर रहे हैं, क्योंकि प्रथम वे श्रद्धा-विश्वास करके मुझे भेजते हैं, परन्तु मैं उन्हें पीछे याद करता हूँ।

सामान्यतया भगवान् का प्रेम तो सब जगह है ही। श्रीरामजी कहते हैं कि हनुमान् ! मुझे सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं परन्तु अनन्य गतिवाला सेवक मुझे अतिशय प्रिय है-


समदरसी मोहि कह सब कोऊ।
सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ।।


भगवान् श्रीकृष्ण भी कहते हैं-

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वष्योस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।

(गीता 9/29)


सम्पूर्ण भूतों में मैं सम हूँ, मेरा न कोई अप्रिय है न प्रिय। किन्तु जो मुझे भक्ति से, प्रेम से भजते हैं वे मेरे में और मैं उनके हृदय में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट हूँ।

दोनों पंक्तियों में ‘अहम्’ यह एकवचन का प्रयोग हुआ है और भक्तों के साथ बहुवचन का प्रयोग हुआ है, क्योंकि भक्ति बहुत-से हो सकते हैं; परन्तु भगवान् तो एक ही हैं। उन्होंने मेरे ऊपर विश्वास और भरोसा करके यह उदारता की है। यदि मैं इस प्रकार पहले करता तो मैं उदार कहलाता, किन्तु उन्होंने मुझ पर पहले ही और मैं तो बाद में करता हूँ तथा उनके अनुसार करता हूँ। अधिक तो नहीं करता क्योंकि मुझसे श्रेष्ठ हैं, उदार हैं। मैं हूँ उदारता लेनेवाला और वे हैं उदारता करने वाले। भगवान् का कितना ऊँचा भाव है, किस भाव से अपने भक्तों को वे देखते हैं। और भी खयाल करने की बात है। जब से अर्थार्थी के लिये भगवान् का यह भाव है, एक आर्त भक्त के लिये यह भाव है, एक जिज्ञासु के लिए यह भाव है, फिर ज्ञानी की तो बात ही क्या है ?

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