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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

ब्रह्मन्! वे सर्वव्यापी भगवान् नारायणदेव सबको व्याप्त करके स्थित हैं। वे सगुण भी हैं और निर्गुण भी। उनका प्रथम स्वरूप ऐसा है कि जिसका शब्दों द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। विद्वान् पुरुष उसे शुक्ल (शुद्धस्वरूप) देखते हैं। भगवान् का वह दिव्य विग्रह ज्योति:पुञ्ज से परिपूर्ण है। वही योगी पुरुषों की परानिष्ठा (अन्तिम लक्ष्य) है। वह दिव्यस्वरूप दूर भी है और समीप भी। उसे सब गुणोंसे अतीत जानना चाहिये। उस दिव्यस्वरूपका ही नाम वासुदेव है। अहंता और ममता का त्याग करनेसे ही उसका साक्षात्कार होता है। रूप और वर्ण आदि काल्पनिक भाव उसमें नहीं हैं। वह सदा परम शुद्ध एवं उत्तम अधिष्ठानस्वरूप है। भगवान् का दूसरा स्वरूप शेषके नामसे प्रसिद्ध है, जो पाताललोक में रहकर पृथ्वीको अपने मस्तकपर धारण करता है। इसे तिर्यक्स्वरूपको प्राप्त हुई तामसी मूर्ति कहते हैं। श्रीहरिकी तीसरी मूर्ति समस्त प्रजाके पालन- पोषणमें तत्पर रहती है। वही इस पृथ्वीपर धर्मकी निश्चित व्यवस्था करती है। धर्मका नाश करनेवाले उद्दण्ड असुरोंको मारती तथा धर्मकी रक्षामें संलग्न रहनेवाले देवताओं और साधु-संतोंकी रक्षा करती है। जैमिनिजी! संसारमें जब-जब धर्मका ह्रास और अधर्मका उत्थान होता है, तब-तब वह अपनेको यहाँ प्रकट करती है।

पूर्वकालमें वही वाराहरूप धारण करके अपने थूथुनसे जलको हटाकर इस पृथ्वीको एक ही दाँतसे जलके ऊपर ऐसे उठा लायी मानो वह कोई कमलका फूल हो। उन्हीं भगवान् ने नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपुका वध किया और विप्रचित्ति आदि अन्य दानवों को मार गिराया। इसी प्रकार भगवान् के वामन आदि और भी बहुत-से अवतार हैं, जिनकी गणना करने में हम असमर्थ हैं। इस समय भगवान् ने मथुरा में श्रीकृष्णरूप में अवतार लिया है। इस तरह भगवान् की वह सात्त्विकी मूर्ति ही भिन्न-भिन्न अवतार धारण करती है। यह आपके पहले प्रश्र का उत्तर बतलाया गया कि भगवान् पूर्णकाम होते हुए भी धर्म आदिकी रक्षाके लिये सदा स्वेच्छासे ही अवतीर्ण होते हैं।

ब्रह्मन्! पूर्वकालमें त्वष्टा प्रजापतिके पुत्र विश्वरूप इन्द्र के हाथसे मारे गये थे, इसलिये ब्रह्महत्या ने इन्द्रको धर दबाया। इससे उनके तेज की बड़ी क्षति हुई। इस अन्याय के कारण इन्द्रका तेज धर्मराजके शरीरमें प्रवेश कर गया, अतः इन्द्र निस्तेज हो गये। तदनन्तर अपने पुत्रके मारे जानेका समाचार सुनकर त्वष्टा प्रजापति को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपने मस्तकसे एक जटा उखाड़कर सबको सुनाते हुए यह बात कही- 'आज देवताओं सहित तीनों लोक मेरे पराक्रम को देखें। वह खोटी बुद्धिवाला ब्रह्मघाती इन्द्र भी मेरी शक्ति का साक्षात्कार कर ले; क्योंकि उस दुष्ट ने अपने ब्राह्मणोचित कर्म में लगे हुए मेरे पुत्रका वध किया है।' यों कहकर क्रोधसे लाल आँखें किये प्रजापतिने वह जटा अग्निमें होम दी। फिर तो उस होमकुण्डसे वृत्र नामक महान् असुर प्रकट हुआ, जिसके शरीरसे सब ओर आगकी लपटें निकल रही थीं। विशाल देह, बड़ी-बड़ी दाढ़ें और कटे-छंटे कोयलेके ढेरकी भाँति शरीरका रंग था। उस महान् असुर वृत्रासुरको अपने वधके लिये उत्पन्न देख इन्द्र भयसे व्याकुल हो उठे। उन्होंने सन्धिकी इच्छासे सप्तर्षियोंको उसके पास भेजा। सम्पूर्ण भूतोंके हितसाधनमें संलग्न रहनेवाले वे महर्षि बड़ी प्रसन्नताके साथ गये और उन्होंने कुछ शर्तों के साथ इन्द्र और वृत्रासुर में मित्रता करा दी। इन्द्रने सन्धिकी शर्तोंका उल्लङ्घन करके जब वृत्रासुरको मार डाला, तब पुनः उनपर ब्रह्महत्याका आक्रमण हुआ। उस समय उनका सारा बल नष्ट हो गया। इन्द्र के शरीरसे निकला हुआ बल वायुदेवता में समा गया। तदनन्तर जब इन्द्रने गौतमका रूप धारण करके उनकी पत्नी अहल्याके सतीत्व का नाश किया, उस समय उनका रूप भी नष्ट हो गया। उनके अङ्ग-प्रत्यङ्गका लावण्य, जो बड़ा ही मनोरम था, व्यभिचार-दोष से दूषित देवराज इन्द्र को छोड़कर दोनों अश्विनीकुमारों के पास चला गया। इस प्रकार इन्द्र अपने धर्म, तेज, बल और रूपसे वञ्चित हो गये। यह जानकर दैत्योंने उन्हें जीतनेका उद्योग आरम्भ किया।

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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