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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

पृथ्वी आदि सात प्रकारकी सूक्ष्म धारणाएँ हैं, जिन्हें योगी मस्तकमें धारण करे। सबसे पहले पृथ्वीकी धारणा है। उसे धारण करनेसे योगीको सुख प्राप्त होता है। वह अपनेको साक्षात् पृथ्वी मानता है, अत: पार्थिव विषय गन्धका त्याग कर देता है। इसी प्रकार वह जलकी धारणासे सूक्ष्म रसका, तेजकी धारणासे सूक्ष्म रूपका, वायुकी धारणासे स्पर्शका तथा आकाशकी धारणासे सूक्ष्म प्रवृत्ति तथा शब्दका त्याग करता है। जब अपने मनसे धारणाके द्वारा सम्पूर्ण भूतोंके मनमें प्रवेश करता है, तब उस मानसी धारणाको धारण करनेके कारण उसका मन अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है। इसी प्रकार योगवेत्ता पुरुष सम्पूर्ण जीवोंकी बुद्धिमें प्रवेश करके परम उत्तम सूक्ष्म बुद्धिको प्राप्त करता और फिर उसे त्याग देता है। अलर्क ! जो योगी इन सातों सूक्ष्म धारणाओंका अनुभव करके उन्हें त्याग देता है, उसको इस संसारमें फिर नहीं आना पड़ता। जितात्मा पुरुष क्रमशः इन सातों धारणाओंके सूक्ष्म रूपको देखे और त्याग करता जाय। ऐसा करनेसे वह परम सिद्धिको प्राप्त होता है। राजन्! योगी पुरुष जिस- जिस भूतमें राग करता है, उसी-उसीमें आसक्त होकर नष्ट हो जाता है। इसलिये इन समस्त सूक्ष्म भूतोंको परस्पर संसक्त जानकर जो इन्हें त्याग देता है, उसे परमपदकी प्राप्ति होती है। पाँचों भूत और मन-बुद्धिके इन सातों सूक्ष्म रूपोंका विचार कर लेनेपर उनके प्रति वैराग्य होता है, जो सद्भावका ज्ञान रखनेवाले पुरुषकी मुक्तिका कारण बनता है। जो गन्ध आदि विषयोंमें आसक्त होता है, उसका विनाश हो जाता है और उसे बारंबार संसारमें जन्म लेना पड़ता है। योगी पुरुष इन सातों धारणाओंको जीत लेनेके बाद यदि चाहे तो किसी भी सूक्ष्म भूतमें लीन हो सकता है। देवता, असुर, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंके शरीरमें भी वह लीन हो जाता है, किन्तु कहीं भी आसक्त नहीं होता।

अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामावसायित्व-इन आठ ईश्वरीय गुणोंको जो निर्वाणकी सूचना देनेवाले हैं, योगी प्राप्त करता है। सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म रूप धारण करना 'अणिमा' है और शीघ्र-से-शीघ्र कोई काम कर लेना 'लघिमा' नामक गुण है। सबके लिये पूजनीय हो जाना 'महिमा' कहलाता है। जब कोई भी वस्तु अप्राप्य न रहे तो वह 'प्राप्ति' नामक सिद्धि है। सर्वत्र व्यापक होनेसे योगीको 'प्राकाम्य' नामक सिद्धिकी प्राप्ति मानी जाती है। जब वह सब कुछ करनेमें समर्थ- ईश्वर हो जाता है तो उसकी वह सिद्धि 'ईशित्व' कहलाती है। सबको वशमें कर लेनेसे 'वशित्व' की सिद्धि होती है। यह योगीका सातवाँ गुण है। जिसके द्वारा इच्छाके अनुसार कहीं भी रहना आदि सब काम हो सके, उसका नाम 'कामावसायित्व' है। ये ऐश्वर्यके साधनभूत आठ गुण हैं।

मुक्त होनेसे उसका कभी जन्म नहीं होता। वह वृद्धि और नाशको भी नहीं प्राप्त होता। न तो उसका क्षय होता है और न परिणाम। पृथ्वी आदि भूतसमुदायसे न तो वह काटा जाता है, न भीगकर गलता है, न जलता है और न सूखता ही है। शब्द आदि विषय भी उसको लुभा नहीं सकते। उसके लिये शब्द आदि विषय हैं ही नहीं। न तो वह उनका भोक्ता है और न उनसे उसका संयोग होता है। जैसे अन्य खोटे द्रव्योंसे मिला और खण्ड-खण्ड हुआ सुवर्ण जब आगमें तपाया जाता है, तब उसका दोष जल जाता है और वह शुद्ध होकर अपने दूसरे टुकड़ोंसे मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार यत्नशील योगी जब योगाग्निसे तपता है, तब अन्त:करणके समस्त दोष जल जानेके कारण ब्रह्मके साथ एकताको प्राप्त हो जाता है। फिर वह किसीसे पृथक् नहीं रहता। जैसे आगमें डाली हुई आग उसमें मिलकर एक हो जाती है, उसका वही नाम और वही स्वरूप हो जाता है, फिर उसको विशेष रूपसे पृथक् नहीं किया जा सकता, उसी तरह जिसके पाप दग्ध हो गये हैं, वह योगी परब्रह्मके साथ एकताको प्राप्त होनेपर फिर कभी उनसे पृथक् नहीं होता। जैसे जलमें डाला हुआ जल उसके साथ मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार योगीका आत्मा परमात्मामें मिलकर तदाकार हो जाता है।


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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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