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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करनेवाले राजा मरुत्तके पास एक दिन कोई तपस्वी आया और इस प्रकार कहने लगा "महाराज! आपकी पितामही वीरा देवीने तपस्वियोंको मदोन्मत्त सोंके विषसे पीड़ित देख आपके पास यह सन्देश दिया है-'राजन्! तुम्हारे पितामह स्वर्गवासी हो गये। मैं और्व मुनिके आश्रमपर रहकर तपस्या करती हूँ। मुझे तुम्हारे राज्य- शासनमें बहुत बड़ी त्रुटि दिखायी देती है। पातालसे सोने आकर यहाँ दस मुनिकुमारोंको डॅस लिया है तथा जलाशयोंके जलको भी दूषित कर दिया है। ये पसीने, मूत्र और विष्ठासे हविष्यको दूषित कर देते हैं। यहाँके महर्षि इन सबको भस्म कर डालनेकी शक्ति रखते हैं, किन्तु किसीको दण्ड देनेका अधिकार इनका नहीं है। इसके अधिकारी तो तुम्ही हो। राजकुमारोंको तभीतक भोगजनित सुखकी प्राप्ति होती है, जबतक उनके मस्तकपर राज्याभिषेकका जल नहीं पड़ता। कौन मित्र हैं, कौन शत्रु हैं, मेरे शत्रुका बल कितना है, मैं कौन हूँ? मेरे मन्त्री कौन हैं, मेरे पक्षमें कौन-कौन-से राजा हैं, वे मुझसे विरक्त हैं या अनुरक्त? शत्रुओंने उन्हें फोड़ तो नहीं लिया है? शत्रुपक्षके लोगोंकी भी क्या स्थिति है, मेरे इस नगर अथवा राज्यमें कौन मनुष्य श्रेष्ठ है, कौन धर्म-कर्मका आश्रय लेता है, कौन मूढ़ है तथा किसका बर्ताव उत्तम है, किसको दण्ड देना चाहिये, कौन पालन करने योग्य है, किन मनुष्योंपर सदा मुझे दृष्टि रखनी चाहिये-इन सब बातोंपर सदा विचार करते रहना राजाका कर्तव्य है। देश-कालकी अवस्थापर दृष्टि रखनेवाले राजाको उचित है कि वह सब ओर कई गुप्तचर लगाये रखे। वे गुप्तचर परस्पर एक-दूसरेसे परिचित न हों। उनके द्वारा यह जाननेकी चेष्टा करे कि कोई राजा अपने साथ की हुई सन्धिको भंग तो नहीं करता। राजा अपने समस्त मन्त्रियोंपर भी गुप्तचर लगा दे। इन सब कार्यों में सदा मन लगाते हुए राजा अपना समय व्यतीत करे। उसे दिन-रात भोगासक्त नहीं होना चाहिये। भूपाल! राजाओंका शरीर भोग भोगनेके लिये नहीं होता, वह तो पृथ्वी और स्वधर्मके पालनपूर्वक भारी क्लेश सहन करनेके लिये मिलता है। राजन् ! पृथ्वी और स्वधर्मका भलीभाँति पालन करते समय जो इस लोकमें महान् कष्ट होता है, वही स्वर्गमें अक्षय एवं महान् सुखकी प्राप्ति करानेवाला होता है। अत: नरेश्वर! तुम इस बातको समझो और भोगोंका त्याग करके पृथ्वीका पालन करनेके लिये कष्ट उठाना स्वीकार करो। तुम्हारे शासन-कालमें ऋषियोंको सोकी ओरसे जो भारी संकट प्राप्त हुआ है, उसे तुम नहीं जानते। मालूम होता है तुम गुप्तचररूपी नेत्रसे अन्धे हो। अधिक कहनेसे क्या लाभ, तुम दुष्टोंको दण्ड दो और सज्जन पुरुषोंका पालन करो। इससे तुम प्रजाके धर्मके छठे अंशके भागी हो सकोगे। यदि तुम प्रजाजनोंकी रक्षा नहीं करोगे तो दुष्टलोग उद्दण्डतावश जो कुछ भी पाप करेंगे, वह सब तुम्हींको भोगना पड़ेगा-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वह करो।' महाराज! आपकी पितामहीने जो कुछ कहा था, वह सब मैंने सुना दिया। अब आपकी जैसी रुचि हो, वैसा करें।"

तपस्वीकी यह बात सुनकर राजा मरुत्तको बड़ी लज्जा हुई, 'सचमुच ही मैं गुप्तचररूपी नेत्रसे अन्धा हूँ। मुझे धिक्कार है'-यों कहकर लंबी साँस ले उन्होंने धनुष उठाया और तुरंत ही और्वके आश्रमपर पहुँचकर अपनी पितामही वीराको तथा अन्यान्य तपस्वी महात्माओंको प्रणाम किया। उन सबने आशीर्वाद देकर राजाका अभिनन्दन किया। तत्पश्चात् सर्पोके काटनेसे मरकर पृथ्वीपर पड़े हुए सात तपस्वियोंको देख उन सबके सामने मरुत्तने बारंबार अपनी निन्दा की और कहा-'मेरे पराक्रमकी अवहेलना करके ब्राह्मणोंके साथ द्वेष करनेवाले दुष्ट सर्पोकी मैं जो दुर्दशा करूँगा, उसे देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण संसार देखे।

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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