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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

यों कहकर राजाने कुपित हो पाताललोक- निवासी सम्पूर्ण नागोंका संहार करनेके लिये संवर्तक नामक अस्त्र उठाया। तब उस महान् अस्त्रके तेजसे सारा नागलोक सब ओरसे सहसा जल उठा। उस समय जो घबराहट हुई, उसमें नागोंके मुखसे 'हा तात! हा माता! हा वत्स!' की पुकार सुनायी देती थी। किन्हींके पूँछ जलने लगे और किन्हींके फण। कुछ सर्प अपने वस्त्र और आभूषण छोड़कर स्त्री-पुत्रोंको साथ ले पाताल त्यागकर मरुत्तकी माता भामिनीकी शरणमें गये, जिसने पूर्वकालमें उन्हें अभय दान दे रखा था। भामिनीके पास पहुँचकर भयसे व्याकुल हुए समस्त सोने प्रणामपूर्वक गद्गदवाणीमें कहा- 'वीरजननी! आजसे पहले रसातलमें हमलोंगोंने जो आपका सत्कार किया था और आपने हमें अभय-दान दिया, उसके पालनका यह समय आ पहुँचा है। हमारी रक्षा कीजिये। यशस्विनि! आपके पुत्र मरुत्त अपने अस्त्रके तेजसे हमलोगोंको दग्ध कर रहे हैं। इस समय आपके सिवा और कोई हमें शरण देनेवाला नहीं है। आप हमपर कृपा कीजिये।

सर्पोकी यह बात सुनकर और पहले अपने दिये हुए वचनको याद करके साध्वी भामिनीने तुरंत ही अपने पतिसे कहा-'नाथ! मैं पहले ही आपको यह बात बता चुकी हूँ कि नागोंने पातालमें मेरा सत्कार करके मेरे पुत्रसे प्राप्त होनेवाले भयकी चर्चा की थी और मैंने इनकी रक्षाका वचन दिया था। आज ये भयभीत होकर मेरी शरणमें आये हैं। मरुत्तके अस्त्रसे ये सब लोग दग्ध हो रहे हैं। जो मेरे शरणागत हैं, वे आपके भी हैं; क्योंकि मेरा धर्माचरण आपसे पृथक् नहीं है तथा मैं स्वयं भी आपकी शरणमें हूँ। अतः आप अपने पुत्र मरुत्तको आदेश देकर रोकिये, मैं भी उससे अनुरोध करूँगी। मेरा विश्वास है, वह अवश्य शान्त हो जायगा।'

अवीक्षित बोले-देवि! निश्चय ही किसी भारी अपराधके कारण मरुत्त कुपित हुआ है, अतः मैं तुम्हारे पुत्रका क्रोध शान्त करना कठिन मानता हूँ।

नागोंने कहा-राजन्! हम आपकी शरणमें आये हैं। आप हमपर कृपा करें। पीड़ितोंकी रक्षा करनेके लिये ही क्षत्रियलोग शस्त्र धारण करते हैं।

शरण चाहनेवाले नागोंकी यह बात सुनकर तथा पत्नीके प्रार्थना करनेपर महायशस्वी अवीक्षितने कहा-'मैं तुरंत चलकर नागोंकी रक्षाके लिये तुम्हारे पुत्रसे कहता हूँ, क्योंकि शरणागतोंका त्याग करना उचित नहीं है। यदि राजा मरुत्त मेरे कहनेसे अपने शस्त्रको नहीं लौटायेगा तो मैं अपने अस्त्रोंसे उसके अस्त्रका निवारण करूँगा।' यह कहकर क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ अवीक्षित धनुष ले अपनी स्त्रीके साथ तुरंत ही और्व मुनिके आश्रमपर गये।

वहाँ पहुँचकर अवीक्षितने देखा, भामिनीका पुत्र अपने हाथमें एक श्रेष्ठ धनुष लिये हुए है, उसका अस्त्र बड़ा ही भयानक है, उसकी ज्वालासे समस्त दिशाएँ व्याप्त हो रही हैं। वह अपने अस्त्रसे आग उगल रहा है, जो समस्त भूमण्डलको जलाती हुई पातालके भीतर पहुँच गयी है। वह अग्नि अत्यन्त भयानक और असह्य है। राजा मरुत्तको भौंहें टेढ़ी किये खड़ा देख अवीक्षितने कहा- 'मरुत्त ! क्रोध न करो, अपने अस्त्रको लौटा लो।' यह बात उन्होंने बार-बार कही और इतनी शीघ्रतासे कही कि उतावलीके कारण कितने ही अक्षरोंका उच्चारण नहीं हो पाता था।

पिताकी बात सुनकर और बारंबार उन्हें देखकर हाथमें धनुष लिये हुए मरुत्तने माता और पिता दोनोंको प्रणाम किया और इस प्रकार उत्तर दिया-'पिताजी! मेरा शासन होते हुए भी सोने मेरे बलकी अवहेलना करके भारी अपराध किया है। इन महर्षियोंके आश्रममें घुसकर नागोंने दस मुनिकुमारोंको डंस लिया है। इतना ही नहीं, इन दुराचारियोंने हविष्योंको भी दूषित किया है तथा यहाँ जितने जलाशय हैं, उन सबको विष मिलाकर खराब कर दिया है। ये सभी सर्प ब्रह्महत्यारे हैं, अतः इनका वध करनेसे आप हमें न रोकें।'

अवीक्षित बोले-'राजन्! ये सर्प मेरी शरणमें आ गये हैं, अतः मेरे गौरवका ध्यान रखते हुए ही तुम इस अस्त्रको लौटा लो। क्रोध करनेकी आवश्यकता नहीं है।

मरुत्तने कहा-'पिताजी! ये दुष्ट और अपराधी हैं। इन्हें क्षमा नहीं करूँगा। जो राजा दण्डनीय पुरुषोंको दण्ड देता और साधु पुरुषोंका पालन करता है, वह पुण्यलोकोंमें जाता है तथा जो अपने कर्तव्यकी उपेक्षा करता है, वह नरकोंमें पड़ता है।

अवीक्षित बोले-राजन्! ये सर्प भयभीत होकर मेरी शरणमें आये हैं और मैं तुम्हें मना करता हूँ; फिर भी इन नागोंकी हिंसा करते हो तो मैं तुम्हारे अस्त्रका प्रतिकार करता हूँ। मैंने भी अस्त्र-विद्या सीखी है। पृथ्वीपर केवल तुम्हीं अस्त्रवेत्ता नहीं हो। भला, मेरे आगे तुम्हारा पुरुषार्थ क्या है।

यह कहकर क्रोधसे लाल आँखें किये अवीक्षितने धनुष चढ़ाया और उसपर कालास्त्रका सन्धान किया; फिर तो समुद्र और पर्वतोंसहित समूची पृथ्वी, जो संवर्तास्त्रसे सन्तप्त हो रही थी, कालास्त्रका सन्धान होते ही काँप उठी। मरुत्तने भी पिताद्वारा उठाये हुए कालास्त्रको देखकर कहा-'तात! मैंने तो दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये यह अस्त्र उठाया है, आपका वध करनेके लिये नहीं। फिर आप मुझपर कालास्त्रका प्रयोग क्यों करते हैं? महाभाग! मुझे प्रजाजनोंका पालन करना है। आप क्यों मेरा वध करनेके लिये अस्त्र उठाते हैं?'

अवीक्षित बोले-हम शरणागतोंकी रक्षा करनेपर तुल गये हैं और तुम इसमें विघ्न डालनेवाले हो; अत: मैं तुम्हें जीवित नहीं छोडूंगा। जो शरणमें आये हुए पीड़ित मनुष्यपर, वह शत्रुपक्षका ही क्यों न हो, दया नहीं दिखाता, उस पुरुषके जीवनको धिक्कार है। मैं क्षत्रिय हूँ। ये भयभीत होकर मेरी शरणमें आये हैं और तुम्हीं इनके अपकारी हो। फिर तुम्हारा वध क्यों न किया जाय?

मरुत्तने कहा-मित्र, बान्धव, पिता अथवा गुरु भी यदि प्रजा-पालनमें विघ्न डाले तो राजाके द्वारा वह मार डालने योग्य है। अतः पिताजी! मैं आपपर प्रहार करूँगा। आप मुझपर क्रोध न कीजियेगा। मुझे अपने धर्मका पालनमात्र करना है। आपपर मेरा रत्तीभर भी क्रोध नहीं है।

उन दोनोंको एक-दूसरेका वध करनेके लिये दृढ़संकल्प देख भार्गव आदि मुनि बीचमें आ पड़े और मरुत्तसे बोले-'तुम्हें अपने पितापर हथियार चलाना उचित नहीं है।' फिर अवीक्षितसे बोले-'आपको भी अपने विख्यात पुत्रका वध नहीं करना चाहिये।

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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