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बारह
"एक्सक्यूज मी-पर इधर कोई दुबली-पतली लड़की तो नहीं आयी?
बेहद दुबली, कन्धे तक कटे वाल, टेढ़ी माँग, बहुत बड़ी आंखें,
हलकी गुलाबी साडी और...''''जी नहीं,'' प्रवीर का संयत कण्ठस्वर स्वयं ही अनजान बना उसके कानों से टकराने लगा।
''सचमुच ही पैरों में स्केटिंग व्हील बाँधकर भागती है वह शायद। जरा सोचिए इन लम्बी टाँगों को भी पछाड़ गयी!'' वह हँसा। सरदार सचमुच ही साढ़े छह फीट से कम नहीं था।
चमकता जूता, कायदे से पहना गया सूट और टाई, मोती-से चमकते दाँत, जो उसके हँसते ही अँधेरे चेहरे को अचानक जला दी गयी तेज पावर की बत्ती की भाँति उज्जल कर बैठे थे, पर जिसकी चाल-ढाल, फुर्ती और इकहरे शरीर के गठन से प्रवीर उसे युवक समझ बैठा था, दियासलाई के क्षणिक आलोक में उसका प्रौढ़ चेहरा देखकर वह दंग रह गया। सँवरी दाढ़ी के बाल खिचड़ी थे और सुदर्शन चेहरा झुर्रियों से भरने लगा था।
''वैरी स्ट्रेंज,'' वह कहने लगा, ''मुझे दूर से बिलकुल यही लगा कि वह इन्हीं लोहे की छल्लेदार सीढ़ियों पर बिल्ली-सी कूदती चढ़ रही है। शायद धोखा हुआ हो-पर क्या आप मेहरबानी कर मुझे एक बार अपनी कोठी का ओना-कोना देखने देंगे? वह जंगली बिल्ली की तरह कहीं भी छिप सकती है।''
''आप शौक़ से देख सकते हैं, पर पूरे घर का फ्यूज उड़ गया है और मेरे पास टार्च भी नहीं है,'' प्रवीर ने कहा था। पर सरदार को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह छलनामयी कोठी से कहीं बाहर गयी है।
''मैं समझ रहा हूँ जी,'' वह बड़े खिसियाये स्वर में कहने लगा, "एक तो उचक्के की तरह आपके अनजान बँगले में कूद आया हूँ उस पर ओना-कोना छानने के लिए आपकी इजाजत माँग रहा हूँ। पर एक बार ढूँढ़ लूँ तो शायद तसल्ली हो जाएगी।'' सरदार को जैसे उस दुबली लड़की को ढूँढ़े बिना चैन नहीं पड़ रहा था। वह प्रवीर के साथ दियासलाई की तीलियाँ जलाता उचक-उचककर छत की बल्लियाँ तक छान आया। एक बार वारड्रोब के अधखुले पट की ओर पीठ कर वह झुककर पलंग के नीचे झाँकने लगा, तो प्रवीर का कभी न धड़कनेवाला लोहे का कलेजा भी धड़क उठा था। कहीं उसे देख लिया, तो क्या कहेगा वह सभ्य सोम्य सरदार! वह प्रवीर जो कभी झूठ नहीं बोलता, एक अनजान रहस्यमयी छोकरी के लिए इतना बड़ा झूठ कैसे बोल गया?
सरदार एक बार फिर बाहर आकर हताश हो उसी कुरसी पर बैठ गया।
''क्या बताऊँ, भाई साहब, बात भी ऐसी है कि कहते भी शर्म से सिर झुक जाता
है। हमारे आजाद हिन्दुस्तान में अब ऐसी लड़कियाँ भी जन्मने लगी हैं। क़रीब एक साल होने को आया, मेरी बीवी शिमला अपनी बीमार माँ को देखने गयी। मैं फ़ौज में हूँ मुझे ब्रिगेडियर वेदी कहते हैं,'' वह अपने इसी संक्षिप्त परिचय के साथ तपाक् से कुरसी से उछल, प्रवीर से हाथ मिला, फिर बैठकर कहने लगा था,'' गुरु की मरजी ऐसी हुई कि माँ तो ठीक हो गयी, उसकी बीमारी का हाल पूछने गयी बेटी चल दी! एक कार एक्सीडेण्ट में ही मेरी बीवी का इन्तकाल हो गया। मैं लद्दाख में था, लड़की दिल्ली में मेरी माँ के पास थी और बेटा खड़गबासला में। दोनों को यही खबर देने मैं शिमला से लौटकर दिल्ली जा रहा था। चलने लगा तो सास ने मेरी बीवी का सारा गहना थमा दिया। मेरी बीवी को अपने गहनों से अजीब लगाव था! कितनी बार समझाया कि बैंक में रख दे, पर जहाँ भी जाती, उसका छोटा-मोटा लीकर साथ ही चलता। अब आपसे कग कहूँ वैसे अनमोल हीरों का सेट शायद अब सवा लाख में भी नहीं जुटेगा। मेरी बीवी फ़िरोजपुर के वेदियों की बेटी थी और मेरे ससुर लन्दन, कनाडा और अमरीका के गुरुद्वारों में प्रबन्धक रह चुके थे। पहले मैंने सारे गहने अपनी सास को लौटा दिये, 'मेरा तो अनमोल हीरा चला गया, बीबीजी, मैं अब इनका क्या करूँ, 'मैंने कहा तो वे रोने लगीं- 'तुम्हरिा लड़की की सगाई हो गयी है, अब इनकी जरूरत पड़ेगी, बेटे।' और अटैची खोल उन्होंने मुझे पूरी लिस्ट से मिलान कर एक-एक चीज़ समझा दी थी।
''ट्रेन चली, तो मैंने अटैची तकिये के नीचे दबा ली और लेट गया।
''उस कूपे में मेरे साथ एक लड़की भी सफ़र कर रही थी। वही, जिसका पीछा करने मैं यहाँ तक भागता चला आया हूँ। पहले मुझे बड़ा इनबैरेसिंग लगा, भाई साहब, इतना लम्बा सफ़र और साथ में अकेली वह जवान चुलबुली छोकरी। लड़की बेहद चुलबुली थी। कभी लेटती, कभी झटके से कटे बाल पीछे की ओर फेंकती, कभी खिड़की बन्द करती, कभी खोलती। मुझे लेटे-लेटे उसकी नटखट हरकतें देखकर अपनी लड़की तेजेन्दर की ही याद आ रही थी। वह भी एक जगह चुपचाप नहीं बैठ सकती, जैसे बीसियों पिल्लू एक साथ काट रहे हों। कुछ देर तक मैं उसे देखता रहा, फिर मेरी आँखें नींद से खुद-ब-खुद झपकने लगीं। एक तो कई रातों से नहीं सोया था। एक हलकी-सी झपकी के बाद मैंने करवट बदली तो देखा वह लड़की सीट से नीचे टाँग लटकाये सिगरेट पर सिगरेट फूँके चली जा रही है। मैं उसे देखकर दंग रह गया। फ़ौज में रहा हूं-वह भी लद्दाख, लेह और सिक्किम में, जहाँ सिगरेट और रम के बिना कोई भी फ़ौजी नहीं जी सकता। कैसे-कैसे चेन स्मोकर्स भी देखे हैं! पर यह बच्ची तो सबको पछाड़ रही थी। एक बार जी में आया, अँ 'बेटी, क्यों अपने को ऐसे तबाह कर रही हो,' पर फिर चुप रह गया-आजकल की लड़कियों का क्या ठिकाना, कौन बारूद के ढेर में आग लगाये। कहीं कुछ उलटा-सीधा कह बैठी तो खिसियाकर ही लम्बा सफ़र काटना होगा। अपनी ही तेजेन्दर को कभी टोक दूँ? तो
वह टके-सा जवाब धर देती है। फिर यह तो अनजान, परायी बेटी थी।
''मैं करवट बदलकर सो गया। आधी रात को मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे सिरहाने से कुछ खींच लिया है।
''मैं हड़बड़ाकर उठा और स्विच टटोलने लगा। ऐसे मौक़ों पर हमेशा ट्रेन का स्विच बाजीगर की काठ की कटोरियों के नीचे छिपी गोलियों की ही तरह दायें-बायें लुकाछिपी खेलने लगता है। जहाँ हाथ टटोलता वहीं खिड़की की चिटकनी हाथ आती।''
किसी पेशेवर चतुर कहानी कहनेवाले की ही भाँति सबसे रहस्यमय मोड़ पर आकर ब्रिगेडियर वेदी अचानक चुप हो गया था। प्रवीर को भी अब उस कहानी में रस आने लगा था।
''फिर?'' न चाहने पर भी पूछ बैठा था।
''बस साहब, फिर बड़ी देर के बाद स्विच मिला, बिजली जलायी तो देखता क्या हूँ कि वह छोकरी हाथ में मेरी अटैची लिये दरवाजे के पास खड़ी है। मैंने आव देखा न ताव, नीचे कूदा और लपककर उसकी बाँह पकड़ ली। 'ज़रा सोच-समझकर सरदारजी,' वह छोकरी बेहयाई से मुसकराने लगी, 'ऐसा न हो कि आपको अटैची छीनकर पछताना पड़े।'
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