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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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'''अटैची मेरी है, तुमने इसे मेरे सिरहाने से निकाला कैसे?' मैं शायद गुस्से में बुरी तरह बौखला गया था। एक तो हाई ब्लड प्रेशर का मरीज हूँ उस पर उस छोकरी की चोरी और सीनाज़ोरी से मैं आपे से बाहर हो गया।

''देखिए,' उसने जंजीर की ओर हाथ बढ़ाया, 'आपने अटैची छीनी और मैंने जंजीर खींची। मैं एक ही चीख से पूरी ट्रेन के यात्रियों को यहाँ जुटा लूँगी और कहूँगी यह दढ़ियल मेरी इज्जत पर डाका डाल रहा था। अटैची तो आपको मिल जाएगी, पर इल्जत चली जाएगी। ऐसे मौक़ों पर लोग औरत की ही बातों पर विश्वास करते हैं, मर्द की नहीं-ज़रा अपनी उम्र देखिए, इस उम्र में इस बेइज्जती और बदनामी के धक्के को क्या आप सह लेंगे?''
''ठीक कह रही थी छोकरी। शायद लोग उसी की भोली सूरत का एतबार करते। मैं अगर यह भी कहता कि मैं अपनी बीवी की तेरही कर लौट रहा हूँ तब भी शायद मेरी दागी गयी गोली मेरे ही सीने में लगती।

''बीवी नहीं है, इसी से खूबसूरत अकेली लड़की को देखकर बीस गया हैं रँडुआ,'' शायद लोग यही कहते।
'''क्या आप नहीं सोचते सरदारजी,' वह बहुत ही भोलेपन से ऐसे हँसने लगी, जैसे अभी उसके दूध के दाँत भी नहीं टूटे हों, 'कि बजाय इसके कि मैं आपकी इज्जत पर डाका डालूँ अच्छा यह हो कि खाली आपकी अटैची पर ही डाका डालकर चल दूँ!


''मुझे तो जैसे लकवा मार गया था। इतने ही में शायद सिगनल न पाकर गाड़ी किसी बियाबान जंगल के बचि खचाक से रुककर सीटियों से कान फोड़ने लगी।
''मैं उसी की कही बातों में उलझा था, हो सकता था कि मेरी तेजेन्दर की महीना-भर पहले हुई मँगनी भी इसी झूठी बदनामी से टूट जाये। मैं सँभलता, इससे पहले ही वह वित्ते-भर की छोकरी मेरी अटैची लटकाये मुसकराती उतरकर अँधेरे बियाबान में खो गयी। गड़िा जेसे उसी के लिए रुकी थी। मैं बुत-सा खड़ा रह गया-खुला दरवाजा, चलती गड़िा के साथ फटाफट खुल-खुलकर बन्द हुआ, तो मुझे होश आया। पुलिस में खबर करता भी तो क्या होता! आज इतने दिनों बाद वह मुझे फिर चारबाग के स्टेशन पर दिखी। सामान वहीं छोड़, मैं इसके पीछे भागा पर देखिए ना, जिसके रिक्शा का इतनी दूर तक पीछा करता आया, वह इस गली में उतरते ही फिर जादुई परी-सी उड़न-छू हो गयी। आज अगर मिल जाती, तो छोकरी की गरदन वहीं दबोच देता।''
सरदारजी का ब्लड प्रेशर उनकी लाल डोरीदार आखों में उतर आया था।
''क्राइम डज़ नॉट पे ब्रदर,'' वह सिगरेट के टुकड़े को फेंककर उठ गया, ''देख लीजिएगा एक-न-एक दिन कुत्ते की मौत मरेगी।''
''हो सकता है, यह आज की लड़की कोई और हो और आपको पीछा करते देख सहमकर भागने लगी हो। कभी-कभी कोई चेहरा धोखा भी दे जाता है।''
''नहीं जी, ऐसी बात नहीं है। वह चेहरा धोखा नहीं दे सकता। उसे एक बार देख लेने पर शायद आप भी नहीं भूल सकेंगे-वेरी ओरिजिनल आईज-अब मैं चलूँ र सामान चौकीदार को सौंप आया था, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया,'' सरदार ने बड़ी नम्रता से झुककर प्रवीर के दोनों हाथ पकड़कर फ़ौजी झटकों में झटका दिया था। ''आपका बहुत वक्त जाया किया, पर आपसे सब बातें कहने से एकदम लाइट फील करने लगा हूँ।''
चलते-चलते ब्रिगेडियर वेदी उसे अपने चमकते ब्रीफ़केस से निकालकर अपना चमकता विज़िटिंग कार्ड भी दे गया था।
उसके जाने के बाद भी प्रवीर कुछ देर तक कुरसी पर ही बुत-सा बैठा रहा। फिर उसे अपनी वारड्रोब में बन्द उस दुबली-पतली लड़की की याद आयी, तो वह हड़बड़ाकर अलमारी खोलने लपका। उसी क्षण कमरा बिजली से जगमगा उठा। क्या पता इतनी देर तक गरम कपड़ों के साथ बन्द लड़की दम-वम घुटकर बेहोश ही हो गयी हो।
कुछ देर तक तो अँधेरे की अभ्यस्त उसकी आँखें बिजली के आकस्मिक प्रकाश से चौंधियाकर रह गयी थीं। पर ठीक से पलकें झपकाकर उसने देखा। जादूगर हुडूनी के-से ही बाजीगरी चातुर्य से बन्द वारड्रोब का द्वार खोल वह छलनामयी अदृश्य हो चुकी थी। पर गयी किधर से होगी?

पिछवाड़े का एकमात्र मार्ग नवीन कक्का स्वयं ही ताला मारकर वन्द कर गये थे। ऊँचे-ऊँचे रोशनदानों में कितनी ही लम्बी मानवी टाँगें क्यों न हों, कभी नहीं पहुँच सकती थीं। तब क्या वह छत की टंकी पर लगी पाइप को ही पकड़कर सर्पिणी-सी रेंग ग यी थी।
और कहीं हाथ की पकड़ फिसलती तब! कल्पना से ही प्रवीर सिहर उठा था। वह निश्चय ही उसी पाइप लाइन को पकड़कर उतरी थी। क्योंकि टंकी के पास ही उस नाजुक छोटे पैर की एक बालिश्त-भर की लाल स्वेड की चप्पल औंधी पड़ी प्रवीर को मिल गयी थी। उसने चप्पल उठाकर उलट-पुलटकर देखी भी थी, फिर खीझकर नीचे सड़क पर फेंक दी थी।
क्या करेगा उस अनजान सिन्द्रौला की चप्पल सेंतकर, उनकी चतुर स्वामिनी क्या सहज ही में पकड़ में आएगी? नवीन कक्का से कुछ कहना व्यर्थ था। उन्हें प्रवीर जानता था। ऐसी जासूसी हरक़तों में उन्हें बड़ा आनन्द आता था। शायद चप्पल उन्हें दिखाता तो वे पुलिस के कुत्तों को बुलाकर सुँघा भी लेप और बेकार ही में एक तूफान उठ खड़ा होता। फिर प्रवीर न जाने कग सोचकर भागता, वारड्रोब में लटके अपने ट्वीडकोट की जेबें टटोलने लगा था। उसी में उसका बटुआ धरा था। क्या पता, चलते-चलते छोकरी जेब ही काट गयी हो। पर बटुवा ज्यों-का-त्यों धरा था।
नवीन कक्का लौटकर आये तो उसने उनसे एक शब्द भी नहीं कहा था। कहता तो निश्चय ही कक्का उसी की खिल्ली उड़ाते।

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