लोगों की राय

नई पुस्तकें >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

Like this Hindi book 0


अस्पष्ट अँधेरे में जिन बहुत बड़ी सहमी तरल आँखों को उसने पल-भर को ही देखा था, आज संगम तट पर उन्हीं को उसने बड़ी सुगमता से पहचान लिया। कलकत्ता पहुँचते ही अम्मा को सावधान करना होगा। उनकी बातों से उसे ऐसा लगा था कि वह अज्ञात रहस्यमयी अम्मा के दुख के क्षणों में उनकी बहुत अपनी बन गयी है।

जया को लेकर अम्मा इधर बहुत दुखी हो गयी थीं। माया भी ससुराल में बहुत प्रसन्न थी, ऐसी बात न थी। फिर भी उसका आनन्दी स्वभाव अपने को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेता था। संयुक्त परिवार की वह भी बड़ी बहू थी। विवाह के पश्चात् एक दिन भी पति के साथ स्वतन्त्रता की मुक्त उड़ान में पर नहीं फड़फड़ा सकी थी, फिर भी वह माँ-भाई के पास पल-भर रो-धोकर अपनी वर्ष-भर की संचित व्यथा क्षण-भर में भूल-भालकर रह जाती थी। भाई काबुल से मोख्ता लाया है, अम्मा ने उसके लिए कितनी नयी साड़ियाँ ली हैं, इसका सन्तोषजनक उत्तर पाते ही वह अपने श्वसुर-गह की मर्मान्तक पीड़ा को बड़ी सुगमता से पचा लेती थी। पर जया मायके में भी गुम-सुम रहती थी। पति का चंचल छिछोरा स्वभाव उस दम्भी गम्भीर
लड़की को भीतर-ही-भीतर क्षय के घातक कीटाणुओं की भाँति घुला रहा है, यह प्रवीर मन-ही-मन खूब समझता था। दामोदर के सस्पेंशन की खबर पाते ही प्रवीर ने अपने सहपाठी मित्र को पत्र भी लिखा था। सौभाग्य से वह होम डिपार्टमेण्ट में ही सेक्रेटरी के पद पर था। दोनों आई. ए. एस. में एक साथ ही निकले थे, फिर प्रवीर से उसकी प्रगाढ़ मैत्री भी हो गयी थी। उसने प्रवीर के पत्रोत्तर में अपना ही दुखड़ा रोकर पन्ने रँग दिये थे।
''तुमने तो मेरी वही हालत कर दी है प्रवीर,'' उसने लिखा था, ''कि आप मगन्ते बाभना द्वार खड़े जजमान। यहाँ की अफ़सरी में अब सिवाय काँटों के ताज के कुछ भी नहीं रह गया है। अफसरी कुरसी के नाम पर यहाँ कीलों से भरी, हठयोगी की-सी कण्टक-शम्पा मात्र रह गयी है। उसी पर दम साधे लेटा रहता हूँ। कब, एसेम्बली का कौन-सा ऊटपटाँग प्रश्न, किस उच्च पदस्थ अफ़सर के लिए विषबुझा घातक बाण बन बैठे, इसका ठिकाना नहीं। कुछ दिन पहले दुर्भाग्य से मेरी पली ने मेरे एक धृष्ट चपरासी को क्रोध में आकर शायद कुछ बुरा-भला कह दिया था। फ़िलहाल उसी की मूँछों में ताव है, मेरी मूँछें नीची हैं। तुमने लिखा है, 'तुम बड़े भाग्यवान् हो कि स्वदेश में नौकरी कर रहे हो, कम-से-कम आत्मीय स्वजनों का भला तो कर सकते हो।' तुम्हारी चिट्ठी पढ़कर मुझे हँसी आती है, बड़ी अनिच्छा से ही तुम्हें उत्तर में आज से अस्सी वर्ष पूर्व मेरीडिथ टाउनशेण्ड की लिखी पंक्तियाँ भेज रहा हूँ-'वुड यू लाइक टु लिव इन ए कण्ट्री हेयर ऐट एनी मोमेण्ट योर वाइफ़ वुड बी लाइबिल टु बी सेण्टेंस्ट ऑन ए फ़ात्स चार्ज ऑफ़ स्लैपिंग ऐन आया टु थी डेज़ इम्प्रिजनमेण्ट'!'' स्पष्ट था कि डूबते दामोदर को अब एकमात्र तिनके का सहारा भी वह नहीं पकड़ा सकता था। फिर भी उस अकर्मण्य निठल्ले व्यक्ति का निर्लज्ज आचरण देखकर प्रवीर दंग रह गया था। जहाँ जया एक कोने में दुवकी, सूजी आँखें उठाकर घर आये भाई की ओर ठीक से देख भी नहीं सकी थी, वहीं दामोदर साले का गम्भीर स्वभाव जानकर भी अपनी वही सस्ती हरक़तें दोहराने लगा था।

''क्यों साले साहब, कुछ एक-आध बोलत स्मगल कर लाये हो मेरे लिए?'' उसके आते ही दामोदर ने अपना पहला प्रश्न पूछकर बायीं आँख मींच ली थी।
दामोदर को शायद इस बार ससुराल में स्थायी घरजमाई बनने पर उतनी सुविधाएँ प्राप्त नहीं थीं, फिर भी उसके चेहरे पर एक शिकन नहीं उभरी थी।
''अरे भाई प्रवीर। अब तुमसे कुछ छिपा थोड़े ही होगा। माया-सी सतर्क प्रेसरिपोर्टर घर में रहने पर यही तो फ़ायदा है, क्यों है न माया?''
भाई के पास बैठी माया का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा था। कभी इसी सुदर्शन जीजा की ऐसी ठिठोली, उसके कुँआरे अल्हड़ जीवन के माघ को भी फागुन बना देती थी, आज वही जीजा उसकी आँखों में किरकिरी बनकर चुभने लगे थे।
''तुम्हारी तो बड़े-बड़े लोगों से जान-पहचान है। मैं जानता हूँ कि तुम मुझे उबार
ही लोगे, पर हमारी अम्माजी ने तो ऐसा पैंतरा बदला है कि बस। कहीं पान के पत्ते-से फेरे जाते थे और अब उन्हीं रियासती रजवाड़ों की हालत है कि रियासत है, पर प्रिवीपर्स छिना जा रहा है। नाम के अब भी जमाई राजा हैं। पर कोई एक प्याला चाय को भी तो नहीं पूछता।''
माया ही उस दिन उसे एकान्त में समझा गयी थी। जैसे भी हो दौरे से लौटते ही उस अम्मा की पाली गयी छोकरी को हटाना होगा।
''मैंने तो उसे नहीं देखा है। पर उसके सौन्दर्य ने इन दोनों की आँखें चौंधिया दी हैं। इनका भी क्या कोई ठिकाना है! उस पर जीजाजी के रहते अम्मा को यह दुस्साहस हो कैसे गया? जब देखो तब कली का ही बखान, सुनते-सुनते कान पक गये हैं। अपनी बेटियाँ तो जैसे एकदम ही परायी हो गयी हैं।''
जिस अपरिचिता ने गह की रही-सही शान्ति भी नष्ट कर वैमनस्य की अदृश्य दीवार की नींव रख दी थी, उसे निकाल बाहर न करने पर, शायद गृह की उलझी गुव्यियाँ और भी उलझ जाएँगी-यह प्रवीर समझ गया था। कलकत्ता पहुँचने पर दूसरे ही दिन उसने माँ को एकान्त में बड़ी देर तक पूरी बातें समझाने की चेष्टा की, पर वे बार-बार अपनी ही बात दोहराती रही थीं, ''जिसे मैं मिन्नत कर, मनाकर इस घर में लायी थी, उसे आज बिना किसी बात के ही कैसे जाने को कह दूँ? और फिर बेटा लाख हो, दामोदर क्या इतना ही गया-चीता है, जो अपनी बिटिया की उमर की लड़की के पीछे भागेगा?''
''ठीक है अम्मा, तुम नहीं कह पाओगी, तो मैं ही उससे कह दूँगा-कलकत्ता में क्या उसे कहीं और रहने को एक कमरा नहीं जुट सकता?''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book