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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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तेरह


ड्रेसिंग टेबल के सम्मुख खड़ी हो अपने चेहरे के दो-तीन आकर्षक क्लोजअप देखकर उसने पहले अपनी सबसे लुभावनी हँसी कण्ठस्थ कर ली। फिर कलिंग पिस की हथकड़ी-बेड़ियों में देर से बंधे बन्दी केशगुच्छ को एक झटके से अपने सुडौल कन्धों पर झटक लिया। नहा-धोकर चेहरे पर ताजगी आ गयी थी। तन-मन स्वयं ही एक अनजानी पुलक से भर उठा था।
''आप हमेशा बिना बाँहों के ब्लाउज ही पहना कीजिए मिस मजूमदार।'' कभी बॉबी ने कहा था।
''क्यों'' कली ने जान-बूझकर भी अनजान बनने की चेष्टा कर मुग्ध बीबी को उकसाया था। फिर अपने सौन्दर्य की प्रशंसा सुनने में किस सुन्दरी को आनन्द नहीं आता?

''नहीं तो ऐसी सुन्दर बाँहों को देखने से संसार वंचित रह जाएगा,'' बॉबी त्रिभंगी भंगिमा में दीवार से सटकर गले का स्कार्फ़ ठीक करता मुसकराने लगा था।
''ओह, हमारे बॉबी के पेट में दाढ़ी उग आयी है! अरे मुए, तू ऐसे बढ़िया काम्प्लिमेण्ट देने कब से सीख गया?'' आण्टी न जाने कहीं से आकर मुसकराती उसके पीछे खड़ी हो गयी थीं और लड़कियों की भाँति लजाता बीबी पसीना-पसीना हो गया था।
उसकी नंगी बाँहों पर फिसलती बीबी की मुग्ध सिसियर दृष्टि ने कभी झूठी चापलूसी नहीं की होगी।
कली ने बिना बाँहों का ही ब्लाउज पहन लिया। फिर ब्लाउज के बहुत नीचे तक खुले गले में आण्टी का दिया बघनखा पेण्डेण्ट झुलाकर वह दोनों हाथ पीछे बाँधकर खड़ी हो गयी। दर्पण के प्रतिबिम्ब ने मुसकराहट का प्रत्युत्तर दिया, ''बस ऐसे ही हाथ बाँधे खड़ी रहना और किला फ़तह!'' कैसा सिम्बोलिक पेण्डेण्ट लटका दिया था उसने। आण्टी का दिया कोरवेट का अलभ्य उपहार, जिसे चाहने पर वे किसी भी
म्यूजियम में मुँहमाँगी बोली पर बेच सकती थीं।
''आण्टी, ऐसा रेयर बघनखा, सच, मुझे दे रही हो?'' आश्चर्य से बड़ी-बड़ी आँखें फाड़ कली विश्वास से आण्टी को निहारती उनके गले में दोनों बाँहें डाल बच्ची-सी झूलने लगी थी।
''तुम्हीं तो कह रही थीं, यह रुद्रप्रयाग के उसी खूँखार मैनईटर का बघनखा है, जिसने सत्रह गाँवों में आतंक फेलाकर दस औरतें, बीस पुरुष और न जाने कितने पाड़े निगल लिये थे।''
''यू आर राइट हनी,'' आण्टी ने अपने हाथों से क्लैस्प खटकाकर बघनखा कली की सुराहीदार ग्रीवा में झुला दिया था।'' इससे सुन्दर म्यूजियम भला इसे और कहीं मिल सकता था। अब यह बघनखा हमारी कली को दूसरे नरभक्षियों से बचाता रहेगा। कली, माई लव, इसके साथ हमेशा पीली साड़ी पहनना। एकदम कुमाऊँ की खूँखार शेरनी लगोगी...''
काले जरीदार चौड़े कन्ने की पीली गढ़वाली साड़ी कली ने कभी बड़े शौक से खरीदी थी। पर जब भी वह उसे पहन इण्डियन पैवेलियन में मुसकराती खड़ी होती, विदेशी ग्राहकों की दृष्टि दुकान से हटकर दुकान की स्वामिनी पर ही जड़ जाती। दो बार उसने वह साड़ी पहनी थी और दोनों ही बार खड़ी-खड़ी वह विदेश के टके में दो बिकते सस्ते विवाह-प्रस्तावों को हँस-हँसकर अस्वीकार करती रह गयी थी।

आज कली ने सूटकेस के अतल तल से वही मारालक साड़ी निकल ली। अफीम के विष को सम्पूर्ण रूप से घातक बनाने के लिए लोग, सुना है, अचार का तेल मिलाकर चाटते हैं। आज यह बघनखा ही उसके लिए अचार का तेल बनेगा। यल से पहनी गयी पीली साड़ी का चौड़ा जरीदार काला आँचल पीठ पर फैल गया। नग्न सुडौल बाँह में पड़ा साँप के मुँह का मोड़दार बाजूबन्द अब पीछे खड़े शत्रु को अनायास ही डँस सकता था, और यदि कहीं शत्रु से आमने-सामने मुठभेड़ हो गयी तो आण्टी का अपूर्व बघनखा चतुर कपटी अफ़जल खाँ से सशक्त शत्रु का भी पेट फाड़कर रख सकता था।

आज वह भी देख लेगी कौन अफ़जल खाँ उससे बचकर निकल सकता है।
''अम्मा कब तक आएँगी बाबूजी?'' उसने कमरे की खिड़की से ही झाँककर पूछा। अपनी उस भड़कीली, बड़े छलबल से पहनी गयी साड़ी में वह बाबूजी के सामने जाकर क्या खड़ी हो पाती?
''आती ही होगी बेटी, चार बजे उन सबको फिर अलीपुर जाना है।''

बड़ी देर तक कली अपने कमरे की एकमात्र कुरसी पर मूर्ति-सी स्थापित बैठी रही थी, जिससे साड़ी का एक भींज भी इधरउधर न हो। उसे स्वयं लग रहा था
कि वह प्रसिद्ध रंगमंच की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किये जा रहे किसी बहुचर्चित नाटक में महत्त्वपूर्ण नायिका का अभिनय करने के लिए सजी-धजी बैठी है, और किसी भी क्षण परदा उठ सकता है। दर्शकों में जिस कला-समीक्षक की आँखें वह बाँधना चाहती है, हो सकता है, वह अभिनय समाप्त होने पर दर्शकों के साथ तालियों की गड़गड़ाहट में योगदान देकर उसे आकाश में चढ़ाकर रख दे, और हो सकता है कि उसके सस्ते अभिनय का प्रपंच पकड़ लेने पर उसे 'हूट' कर मिट्टी में मिला दे।
हर कार की आवाज़ के साथ उसका धड़कता कलेजा मुँह को आ रहा था। साढ़े दस बज चुके थे और ग्यारह बजे उसे दफ्तर पहुँचना था। भाड़ में जाये अफ़जल खाँ। वह द्वार पर ताला मारकर गेट से बाहर निकल ही रही थी कि नयी फ़ियट उससे सटकर भीतर चली गयी। गाड़ी का छोटा कलेवर ठसाठस भरा था-अम्मा, उनके दोनों दामाद, दोनों पुत्रियाँ और स्वयं चालक बना काबुलीवाला!
वाह-वाह, क्या बढ़िया नाम सूझ गया था अचानक! स्वाभाविक स्वच्छ हँसी का दर्पण चमकाती कली घर लौटे परिवार का स्वागत करने पलट गयी।
''अम्मा,'' गेट से ही उसने पलटकर हाथ हिलाया और अम्मा को उनकी पोटली सहित चुम्बक की भाँति खींच लिया।
''अरे रे, तू कब टपकी? जब देखो तब छप्पर फाड़कर ही टपकती है तू! और आते ही फिर कहीं चल दी?''
अम्मा उसके पास पहुँचकर उसकी दमकती साड़ी को देखने लगीं। ऐसे सज-धजकर तो लड़की कभी दफ्तर नहीं जाती थी। ''क्यों बेटी, आज कहीं दावत-वावत खाने जा रही है क्या?'' बड़े स्नेह से अम्मा ने उसकी पीठ थपथपाकर पूछा।

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